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जन-जन में तत्त्व
१६७ भी श्रात्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है । वह यात्मा का स्वभाव है, इसलिए श्रात्मा में अभिन्न है।
यहाँ पर एक शंका होती है कि यदि यात्मा और जान अभिन्न है तो उन दोनों में ककरण भाव कसे बन सकता है ? जिस प्रकार सर्प अपने ही शरीर से अपने को लपेटता है उसी प्रकार प्रात्मा अपने से ही अपने श्रापको जानता है । वहीं प्रात्मा जानने वाला है- कर्ता है और उसी यात्मा से जानता है करण है। कर्ता और करण का यह सम्बन्ध पर्यायभेद से है। श्रात्मा की ही पर्यायें करण होती हैं। उन पर्यायों को छोड़कर दूसरा कोई करण नहीं होता । अतः प्रात्मा चैतन्य स्वरूप है।
श्रात्मा 'परिणामी है' यह विशेषण उन लोगों के मत के खण्डन के लिए है जो श्रात्मा को चैतन्यस्वरूप मानते हुए भी एकान्त रूप से नित्य एवं शाश्वत मानते हैं। वे कहते हैं कि प्रात्मा अपरिणामी है-अपरिवर्तनशील हैं । उदाहरण के लिए सांख्य दर्शन को लीजिए। वह पुरुप को कूटस्थ नित्य मानता है । जो कुछ भी परिवर्तन होता है, वह प्रकृति में होता है । पुरुष न कभी बद्ध होता है और न कभी मुक्त । बन्धन और मुक्तिम्प जितने भी परिणाम है, प्रकृत्याश्रित हैं, पुरुपाश्रित नहीं। पुरुप नित्य है अत्तः जन्म, मरण श्रादि जितने भी परिणाम हैं उनसे वह भिन्न है. अस्पृश्य है । इसीलिए पुरुप अपरिगामी है।
परिगामवाद का समर्थन करने वाला जैन दर्शन कहता है कि यदि प्रगति ही बद्ध होती है, प्रकृति ही मुक्त होती है तो वह क्या है जिससे पति बल होती है और जिसले प्रभाव मे उसे मुक्ति मिलती है । प्रकृति के अतिरिक्त कोई ऐसा तत्त्व नहीं जिसे सांख्य दर्शन मानता हो । इस
---- 'सर्प धारमानमात्मना देोटयति' ।
~पली पा०८ पृ० ४३ २ ...रमार मानेमापि मुत्यो नाऽपि मरति फदिनन् । संगति का यो मुन्धरे घनानाश्या प्रकृतिः ।।
~मांस्यकारिका, ६२