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जैन-दर्शन
लिये प्रकृति किसी अन्य तत्त्व से तो वद्ध नहीं हो सकती। यदि प्रकृति स्वयं ही बद्ध होती है और स्वयं ही मुक्त होती है तो वन्धन और मुक्ति में कोई अन्तर नहीं होगा, क्योंकि प्रकृति हमेशा प्रकृति है। वह जैसी है वैसी ही रहेगी, क्योंकि उसमें भेद डालने वाला कोई अन्य कारण नहीं है । अखण्ड तत्त्व में अपने आप अवस्थाभेद नहीं हो सकता। यदि यह माना जाय कि पुरुष प्रकृति के परिवर्तन में कारण है तब भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । पुरुष हमेशा प्रकृति के सम्मुख रहता है। यदि वह हमेशा एकरूप है तो प्रकृति भी एकरूप रहेगी। यदि उसमें परिवर्तन होता है तो प्रकृति में भी परिवर्तन होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि पुरुष तो सदैव एकरूप रहे और प्रकृति में परिवर्तन होता रहे । यदि पुरुष प्रकृति के परिवर्तन में कारण है तो उसमें भी परिवर्तन होना चाहिए । बिना उसमें परवर्तन हुए प्रकृति में परिवर्तन होता रहे, यह समझ में नहीं पाता । यदि प्रकृति के परिवर्तन के लिए पुरुष में परिवर्तन माना जाय तो जिस बला से बचने के लिए प्रकृति की शरण लेनी पड़ी वही बला पुनः गले में आ पड़ी।
___ सांख्य दर्शन की धारणा के अनुसार सुख-दुःखादि जितनी भी मानसिक क्रियाएँ हैं, सब प्रकृति की देन हैं । पुरुष का बुद्धि में प्रतिबिम्ब पड़ता है । इस प्रतिबिम्ब के कारण पुरुष यह समझता है कि सुख दुःखादि मेरे भाव हैं । यह धारणा भी परिणामवाद की ओर जाती है। पुरुष अपने मूल स्वरूप को भूल कर सुखदुःखादि को अपना समझने लगता है, इसका अर्थ यह हुआ कि उसके मूलरूप में एक प्रकार का परिवर्तन हो गया। बिना अपने असली रूप को छोड़े यह कभी नहीं हो सकता कि वह सुखदुःखादि को जो वास्तव में उसके नहीं हैं, अपने समझने लगे । ज्यों ही वह अपने मूलरूप को भूलकर अन्य रूप में आ जाता है त्यों ही उसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है । यह परिवर्तन अपरिणामी पुरुष में कदापि सम्भव नहीं। अतः पुरुष परिणामी है । दूसरी बात यह है कि सुखदुःखादि परिणाम चैतन्यपूर्वक हैं । जड़ प्रकृति को इन परिणामों का अनुभव नहीं हो सकता। ऐसी दशा में यही मानना चाहिए कि पुरुष परिणामी है।