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. जैन-दर्शन 'अमुक आत्मा के साथ ही हो और अन्य आत्माओं के साथ नहीं । दूसरी बात यह है कि न्यायवैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा भी सर्वव्यापक है, इसलिए एक आत्मा का ज्ञान सब आत्माओं में रहना चाहिए । इस तरह चैत्र का ज्ञान मैत्र में भी रहेगा।
किसी तरह यह मान भी लिया जाय कि ज्ञान समवाय सम्बन्ध से प्रात्मा के साथ सम्बद्ध हो जाता है, तब भी एक प्रश्न बाकी रह जाता है और वह यह कि समवाय किस सम्बन्ध से ज्ञान और प्रात्मा के साथ सम्बद्ध होता है ? यदि इसके लिए किसी अन्य समवाय की आवश्यकता होती है तो अनवस्था दोष का सामना करना पड़ता है। यदि यह कहा जाय कि वह अपने-आप जुड़ जाता है तो फिर ज्ञान और प्रात्मा अपने आप क्यों नहीं सम्बद्ध हो जाते ? उनके लिए एक तीसरी चीज की । आवश्यकता क्यों रहती है ?
नैयायिक और वैशेषिक एक दूसरा हेतु उपस्थित करते हैं । वे कहते हैं कि आत्मा और ज्ञान में कतृ-करण भाव है, अतः दोनों भिन्न होने चाहिएँ । आत्मा कर्ता है और ज्ञान करण है, अतः आत्मा और ज्ञान एक नहीं हो सकते । जेन-दार्शनिक कहते हैं कि यह हेतु ठीक नहीं है । ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध सामान्य करण और कर्ता का सम्बन्ध नहीं है । 'देवदत्त दात्र से काटता है, यहाँ दात्र एक बाह्य करण है। : ज्ञान इस प्रकार का करण नहीं है जो प्रात्मा से भिन्न हो । यदि दात्र
की तरह ज्ञान भी आत्मा से भिन्न सिद्ध हो जाय तब यह कहा जा सकता है कि ज्ञान और आत्मा में करण और कर्ता का सम्बन्ध है, फलतः ज्ञान प्रात्मा से भिन्न है। हम कह सकते हैं कि देवदत्त नेत्र और दीपक से देखता है। यहाँ पर देवदत्त से दीपक जिस प्रकार भिन्न है उस प्रकार आँखें भिन्न नहीं हैं । यद्यपि दीपक और नेत्र दोनों करण हैं किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। उसी प्रकार ज्ञान आत्मा का करण होता हुआ
.१-करणं द्विविध ज्ञयं, वाह्यमाभ्यन्तरं बुधः । यथा लुनाति दात्रेण, मेरु गच्छति चेतसा ॥
-स्याद्वादमंजरी, का० ८ पृ० ४२