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जैन-दर्शन में तत्त्व
भी ग्रात्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है । वह ग्रात्मा का स्वभाव है, इसलिए श्रात्मा से भिन्न है ।
यहाँ पर एक शंका होती है कि यदि ग्रात्मा और ज्ञान प्रभिन्न हैं तो उन दोनों में कर्तृ -करण भाव कैसे वन सकता है ? जिस प्रकार सर्प अपने ही शरीर से अपने को लपेटता है उसी प्रकार ग्रात्मा अपने से ही पने श्रापको जानता है । वही ग्रात्मा जानने वाला है - कर्त्ता है और उसी श्रात्मा से जानता है-करण है । कर्त्ता और करण का यह सम्बन्ध पर्यायभेद से है । श्रात्मा की ही पर्यायें करण होती हैं । उन पर्यायों को छोड़कर दूसरा कोई कररण नहीं होता । श्रतः श्रात्मा चैतन्य स्वरूप है |
आत्मा 'परिणामी है' यह विशेषरण उन लोगों के मत के खण्डन के लिए है जो श्रात्मा को चैतन्यस्वरूप मानते हुए भी एकान्त रूप से नित्य एवं शाश्वत मानते हैं । वे कहते हैं कि ग्रात्मा अपरिणामी है-परिवर्तनशील है । उदाहरण के लिए सांख्य दर्शन को लीजिए। वह पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है । जो कुछ भी परिवर्तन होता हैं, वह प्रकृति में होता है । पुरुष न कभी बद्ध होता है और न कभी मुक्त | बन्धन और मुक्तिरूप जितने भी परिणाम हैं, प्रकृत्याश्रित हैं, पुरुपाश्रित नहीं । पुरुष नित्य है श्रतः जन्म, मरण श्रादि जितने भी परिणाम हैं उनसे वह भिन्न है - स्पृश्य है । इसीलिए पुरुष परिणामी है ।
परिणामवाद का समर्थन करने वाला जैन दर्शन कहता है कि यदि प्रकृति ही वृद्ध होती है, प्रकृति ही मुक्त होती है तो वह क्या है जिससे प्रकृति बद्ध होती है और जिसके प्रभाव मे उसे मुक्ति मिलती है । प्रकृति के अतिरिक्त कोई ऐसा तत्त्व नहीं जिसे सांख्य दर्शन मानता हो । इस
१- 'सर्प ग्रात्मानमात्मना वेष्टयति' ।
-वही का० ८ पृ० ४३
२ - तस्मान्न बध्यतेऽ नाऽपि मुच्यते नाऽपि संनरति कचित् । संसरतिबद्धते गुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥
- सांख्यकारिका ६२