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जैन-दर्शन
केवल । इनमें से प्रथम दो अर्थात् मति और श्रुत को परोक्ष कहा । शेष तीन अर्थात् अवधि, मनःपर्यय और केवल को प्रत्यक्ष कहा । इन पाँच ज्ञानों में से प्रथम तीन ज्ञानों को विपर्यय कहा । इस प्रकार दो परोक्ष, तीन प्रत्यक्ष और तीन विपरीत यों कुल मिला कर ज्ञान के आठ भेद हुए । ज्ञानोपयोग की चर्चा इन आठ भेदों के साथ समाप्त होती है। दर्शनोपयोग :
ज्ञानोपयोग की तरह दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का हैस्वभावदर्शन ओर विभावदर्शन । __ स्वभावदर्शन आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है। स्वभावज्ञान की तरह यह भी प्रत्यक्ष एवं पूर्ण होता है। इसे केवलदर्शन भी कहते हैं। ___ विभावदर्शन तीन प्रकार का होता है-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन ।
चक्षुर्दर्शन-चक्षुरिन्द्रिय से होने वाला निराकार और निर्विकल्प दर्शन चक्षुर्दर्शन है। चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता के कारण चक्षुर्दर्शन नामक स्वतन्त्र भेद किया गया है ।
अचक्षुर्दर्शन-चक्षुरिन्द्रियातिरिक्त इन्द्रियों तथा मन से होने वाला जो दर्शन है वह अचक्षुर्दर्शन है ।।
अवधिदर्शन-सीधा आत्मा से होने वाला रूपी पदार्थों का दर्शन अवधिदर्शन है।
इस प्रकार दर्शनोपयोग के चार भेद हुए
१-केवलदर्शन (स्वभावदर्शन), २-चक्षुर्दर्शन, ३–अचक्षुदर्शन, ४-अवधिदर्शन।
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेदों में यह अन्तर है कि दर्शनोपयोग कभी मिथ्या नहीं होता । सत्तामात्र का उपयोग मिथ्या. नहीं हो सकता । जब उपयोग सविकल्पक रूप धारण करता है-- विशेषग्राही होता है तव मिथ्या होने का अवसर आता है। सामान्य सत्तामात्र का ग्रहण मिथ्यात्व से परे है क्योंकि वहाँ केवल सत्ता का