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वन-दर्शन में तत्त्व
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नात्मा का धर्म है । यह चैतन्य केवल उपयोग ही नहीं है, अपितु सुख और वीर्यात्मक भी है । उपयोग का अर्थ होता है ज्ञान और दर्शन' | आत्मा में अनन्त चतुष्टय होता है—अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । उपयोग केवल ज्ञान और दर्शन हो है । सुख और वीर्य का इसी के अन्दर अन्तर्भाव करने में यह लक्षण पूर्ण हो सकता है । अनन्त चतुष्ट्य संसारी श्रात्मा में अपने पूर्णरूप में नहीं होते | मुक्त ग्रात्मा वा केवलियों की दृष्टि से इनका ग्रहण किया गया है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म के अय में क्रमशः अनन्तज्ञान, ग्रतन्तदर्शन, अनन्तनुख और अनन्तवीर्य प्राईत होता है । इन चार चातिकर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत होने वाली चेतना की विशेष शक्तियों को ही अनन्त चतुष्टय का नाम दिया गया है। वैसे जीव आत्मा का लक्षण ना ही है।
ज्ञानोपयोगः
ज्ञानोपयोग और वर्तनोपयोग में यह अन्तर है कि ज्ञान साकार है, जब कि वर्शन निराकार है। ज्ञान निर्विकल्पक है । की सर्व केवल सत्ता का मान होता है। इसके चाही होता जाता है। यह
है और न का वर्णन है. जिसमें उपयोग विशेषहोता है
है
की
फिर ज्ञान होता है। इसीलिए वन निग और ज्ञान साकार और सविकल्पक है ग्रहण इसलिए किया जाता है कि बा यविक महत्त्व है। वैसे उत्पति की स्वाद में है और
को स्थान पहले के
केक
और निर्विकल्पक
के पहले होने के
फीत विभावज्ञान