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जैन-दर्शन कभी सत् नहीं हो सकता और यदि सत् है तो सर्वथा असत् नहीं हो सकता । चतुर्भूत में चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती, अतः उसका पाश्रय पात्मा है । ___ आत्मा की पृथक् सिद्धि में एक हेतु यह भी है कि आत्मा या जीव शब्द सार्थक है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिमूलक है और शुद्ध पद है । जो पद व्युत्पत्तियुक्त एवं शुद्ध होता है, उसका कोई-न-कोई विषय या वाच्य अवश्य होता है, जैसे घट शब्द का वाच्य एक विशिष्ट आकार वाला पदार्थ है । जो पद सार्थक नहीं होता उसकी व्युत्पत्ति नहीं होती और वह शुद्धपद नहीं होता । “डित्थ' पद शुद्ध होता हुअा भी व्युत्पत्तिमूलक नहीं है, अतः वह निरर्थक है ।। 'याकाशकुसुम' पद व्युत्पत्तिमूलक होता हुआ भी निरर्थक है क्योंकि वह शुद्ध पद नहीं है । 'जीव' पद के लिए यह बात नहीं है, अतः उसका वाच्य कोई-न-कोई अर्थ अवश्य होना चाहिए। यह अर्थ आत्मा है। श्रात्मा का स्वरूपः
तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण वताते समय उपयोग शब्द का प्रयोग किया गया है । उपयोग बोधरूप व्यापार-विशेष है । यह व्यापार चैतन्य के कारण होता है। जड़ आदि पदार्थों में उपयोग नहीं है क्योंकि उनमें चेतना शक्ति का अभाव है । यह चेतना शक्ति अात्मा को छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं पायी जाती अतः इसे जीव का लक्षण कहा गया है। उपयोग के अतिरिक्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, सत्त्व, प्रमेयत्वादि अनेक साधारण धर्म भी उसमें पाये जाते हैं । जीव का विशेष धर्म चेतना ही तत्त्वार्थकार के शब्दों में उपयोग है, अत: वही उसका लक्षण है । लक्षण में उन्हीं गुणों का समावेश होता है तो असाधारण होते हैं । उपयोग को जो अात्मा का लक्षण कहा गया है वह मोटे तौर से है। वैसे चैतन्य ही - १-जीवोत्ति सत्यपमिणं, सुद्धत्तणो घडाभिहरणं व ।।
-विशेपावश्यक भाष्य :१५७५ २–'उपयोगो लक्षणम्'। .
-तत्त्वार्थसूत्र २८