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जन-दर्शन में तत्त्व
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प्रतिभास है । सत्ता के प्रतिभास में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का भेद नहीं होता। वह तो एक रूप होता है और वह रूप यथार्थ होता है । दूसरा अन्तर यह है कि मनःपर्यय दर्शन नहीं होता क्योंकि अवधिदर्शन के विपय के अनन्तवें भाग का ज्ञान ही मन:पर्ययज्ञान है । मनःपर्यय उपयोग अवधिज्ञान का ही विशेप विकास है। ऐसी दशा में मनःपर्यय नामक भिन्न दर्शन की कोई अावश्यकता नहीं । सूक्ष्म विवेचन किया जाय तो मनःपर्ययज्ञान भी अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है । अवधिज्ञान और मन पर्ययज्ञान एक ही उपयोग की दो भूमिकाएँ हैं । तीसरा अन्तर यह है कि श्रुतज्ञान की तरह श्रुतदर्शन नहीं होता क्योंकि श्रुतोपयोग हमेशा सविकल्पक होता है । चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन मतिज्ञान की ही भूमिकाएं हैं। इन दोनों का नाम मतिदर्शन इसलिए नहीं रखा कि दर्शन में चक्षुरिन्द्रिय को अधिक महत्त्व दिया गया है । चक्षु के महत्त्व के कारण एक भेद चक्षु के नाम से रखा गया और दूसरा चक्षु से इतर इन्द्रियों और मन के नाम से ।
सामान्यरूप से प्रात्मा का यहो स्वरूप है । ऐसे जीवों के दो भेद किए गए हैं---संसारी और मुक्त ।' मुक्त जीव का लक्षण स्वभावोपयोग है । केवलनान और केवलदर्शन रूप प्रात्मा का शुद्ध
और स्वभावोपयोग ही मुक्तात्मा की पहचान है । संसारी जीवों के समनस्क और अमनस्क, त्रस और स्थावर, पर्याप्त और अपर्याप्त आदि कई भेद हैं । इन सब भेदों का विशेष विचार न करके संसारी जीव के स्वरूप का जरा विस्तृत विवेचन करेंगे। साथ-ही-साथ अन्य दानों से इस विपय में क्या मतभेद है, इसका भी उल्लेख करने का प्रयत्न करेंगे। संसारी प्रात्मा: . वादिदेवमूरि ने संमारी प्रात्मा का जो स्वन्प बताया है उनमें जनदर्शनसम्मत यात्मा का पूर्ण रूप या जाता है। यहाँ उनी स्वरूप को प्राधार बनाकर विवेचन किया जायगा। वह स्वल्प
तारिलो मुन्तादच'-वही २।१०