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________________ १-४७ जैन-दर्शन में तत्त्व क्षेत्र से बाहर समझता है । इस नय का अन्तिम विषय सत्ता सामान्य है, जिसे हम पर सामान्य या महा सामान्य कह सकते हैं । प्रत्येक द्रव्य सत् है । सत्तासामान्य का ग्रहण एकता का अन्तिम सोपान है, जहाँ सारे भेद भेदरूप से सत् होते हुए भी अभेद रूप से प्रतिभासित होते हैं । सत्ता भेदों को नष्ट नहीं करती, अपितु उनमें एकत्व और सद्भाव स्थापित करती है । भेद रहते हुए भी जहाँ. भेद का दर्शन होता है, अनेकता में भी जहाँ एकता दिखाई देती है, इस दृष्टि से द्रव्य अथवा तत्त्व एक है । जो लोग ग्रद्वैत में विश्वास रखते हैं उनसे हमारी मान्यता में यह भेद है कि वे केवल सामान्य को यथार्थ मानते हैं और भेद अर्थात् विशेष का अपलाप करते हैं जब कि जैन दृष्टि से भेद का निषेध नहीं किया जा सकता । वहाँ, प्रयोजन के प्रभाव में भेद की उपेक्षा अवश्य की जा सकती है । उपेक्षा का अर्थ यह नहीं कि भेद असत् है - मिथ्या है । अभेद की दृष्टि को प्रधानता देते समय हमारा भेद से कोई प्रयोजन नहीं होता है इसीलिए उसकी उपेक्षा की जाती है । उपेक्षा और अपलाप में जितना अन्तर है, अद्वैतवाद ग्रौर जैन दर्शन की मान्यता में उतना ही अन्तर है । इस प्रकार संग्रह नय अर्थात् संग्रहदृष्टि की प्रधानता स्वीकृत की जाय तो द्रव्य एक ही सिद्ध होगा और वह होगा सत्ता सामान्य के रूप में । 11 यदि हम द्वैतदृष्टि से देखें तो द्रव्य को दो रूपों में देख सकते हैं । ये दो रूप हैं जीव और ग्रजीव । चैतन्यधर्म वाला जीव है और उससे विपरीत जीव है । इस प्रकार सारा लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है । चैतन्य लक्षरण वाले जितने भी द्रव्य विशेष हैं. वे सव जीव- विभाग के अन्तर्गत श्रा जाते हैं । जिनमें चैतन्य नहीं है इस प्रकार के जितने भी द्रव्यविशेष हैं, उन सब का समावेश जीवविभाग के अन्तर्गत हो जाता है । जीव और जीव के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छः भेद भो होते हैं । जीव द्रव्य ग्ररूपी है । ग्रजीव द्रव्य के दो भेद किये गये १ - विसेसिए जीवदध्बे प्रजीव दध्वे य-धनुयोगद्वार सू० १२३ २ - भगवती सूत्र - १५।२-४
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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