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जैन-दर्शन
है। ठीक इसी प्रकार की मान्यता एरिस्टोटल की भी है । वह वस्तु को सामान्य और विशेष उभयात्मक मानता है । वह कहता है कि कोई भी सामान्य विशेष के बिना उपलब्ध नहीं होता और कोई भी विशेष सामान्य के बिना उपलब्ध नहीं होता । द्रव्य सामान्य और विशेष दोनों का समन्वय है। कोई भी वस्तु इन दोनों रूपों के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती । जैन दर्शन सम्मत भेदाभेदवाद वस्तु के वास्तविक रूप को ग्रहण करता है । यह भेदाभेद दृष्टि अनेकान्त दृष्टि का एक प्रकार से कारण है । दो परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुणों को एक ही वस्तु में एक साथ मानना भेदाभेदवाद का अर्थ है । भेद और अभेद की एकत्र स्थिति वस्तु के रूप को नष्ट नहीं करती अपितु उसको वास्तविक रूप में प्रकट करती है । भेद और अभेद के सम्बन्ध के विषय में भी स्याद्वाद का ही प्रयोग करना चाहिए । भेद और अभेद कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं । द्रव्य और पर्याय के लिए जिस हेतु का प्रयोग किया गया है उसी हेतु का प्रयोग भेद और अभेद के लिए भी किया जा सकता है। द्रव्य अभेद-मूलक है और पर्याय भेद-मूलक है। इसलिए द्रव्य और अभेद एक हैं और पर्याय और भेद एक हैं। भेद और अभेद-विषयक इतना विवेचन काफी है। द्रव्य का वर्गीकरण :
द्रव्य के कितने भेद हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है । जहाँ तक द्रव्य-सामान्य का प्रश्न है, -सब एक है । वहाँ किसी प्रकार की भेद-कल्पना उत्पन्न ही नहीं होती। जो द्रव्य है वह सत् है और वही तत्त्व है । सत्तासामान्य को दृष्टि से जड़ और चेतन, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक हैं । यह दृष्टिकोण संग्रह-नय की दृष्टि से सत्य है। संग्रह-नय सर्वत्र अभेद देखता है। भेद की उपेक्षा करके अभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह-नय का कार्य है । अभेदग्राही संग्रह-नय भेद का निषेध नहीं करता अपितु भेद को अपने.
१-देखिए-A Critical History of Greek Philosophy.