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जैन दर्शन में तत्त्व
१४५ प्रकार अभेद वास्तविक है ठीक उसी प्रकार भेद वास्तविक है । तत्त्व की दृष्टि से जो स्थान अभेद का है, ठीक वही स्थान भेद का है। भेद और अभेद दोनों इस ढंग से मिले हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की उपलब्धि नहीं हो सकती । वस्तु में दोनों का अविच्छेद समन्वय है। जहाँ भेद है वहाँ अभेद है और जहाँ अभेद है वहाँ भेद है । भेद और अभेद किसी सम्बन्ध विशेष से जुड़े हों, ऐसी बात नहीं है । वे तो स्वभाव से ही एक दूसरे से मिले हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य-विशेषात्मक है-भेदाभेदात्मक है-नित्यानित्यात्मक है । जो सत् है वह भेदाभेदात्मक है। प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है। वस्तु या तत्त्व को केवल भेदात्मक कहता ठीक नहीं, क्योंकि कोई भी भेद अभेद के बिना उपलब्ध नहीं होता । अभेद को मिथ्या या कल्पना मात्र कहना काफी नहीं जब तक कि वह किसी प्रमाण से मिथ्या सिद्ध न हो। प्रमारण का अाधार अनुभव है और अनुभव अमेद को मिथ्या सिद्ध नहीं करता। इसी प्रकार एकान्त अभेद को मानना भी ठीक नहीं क्योंकि जो दोष एकान्त भेद में है वही दोष एकान्त अभेद में भी है । भेद और अभेद को दो स्वतंत्र पदार्थ मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न उपलब्ध नहीं होते और उनको जोड़ने वाला कोई अन्य पदार्थ भी उपलब्ध नहीं होता । उनको जोड़ने वाला पदार्थ होता है, ऐसा मान लिया जाय, फिर भी दोष से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि उसको जोड़ने के लिए एक अन्य पदार्थ की आवश्यकता होगी और इस तरह अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होगा। ऐसी दशा में वस्तु स्वयं ही भेदाभेदात्मक है, ऐमा मानना ही ठीक होगा । तत्त्व कथंचित् सदृश है, कथंचित् विरूप-विसदृश है, कथंचित् वाच्य है, कथंचित् अवाच्य है, कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है । ये जितने भी धर्म हैं वस्तु के अपने धर्म हैं। इन धर्मों का कहीं बाहर से सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है। वस्तु स्वयं सामान्य और विशेष है, भिन्न और अभिन्न है, एक और अनेक है, नित्य और क्षणिक
१-स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदैव । '
अन्ययोगव्यवच्छेदिकाद्वात्रिंशिका, का०
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