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________________ का प्रयत्न उस युग की दृष्टि से महान है। इतना होते हुए भी महावीर को इस कार्य में पूरी सफलता मिली हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि महावीर के जीवन के अन्तिम काल तक आर्थिक असमानता बनी रही । महावीर के बड़े बड़े भक्त-श्रावक इस असमानता के उदाहरण के रूप में उपस्थित किये जा सकते हैं। हाँ, जहाँ तक श्रमण-सघ का प्रश्न है, महावीर को अपरिग्रह के सिद्धान्त में पूरी सफलता मिली। श्रमरण-संघ का कोई भी साधु आवश्यकता से अधिक उपभोग-परिभोग की सामग्री नहीं रख सकता था। इस सामग्री की मर्यादा का बन्धन भी बहुत कठोर था। धार्मिक मान्यता : जिस समय महावीर ने अहिंसक धारणाओं का प्रचार करना शुरू किया उस समय भारत की भूमि पर वैदिक क्रियाकाण्डों का बहुत जोर था। यज्ञ के नाम पर किन किन प्राणियों के प्राणों की आहुति दी जाती थी, यह इतिहास के विद्यार्थी से छिपा नहीं है । वैदिक क्रिया-काण्डों का सुचारु रूप से पालन करवाने के लिए एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय ही बन चुका था। इस सम्प्रदाय का नाम मीमांसा सम्प्रदाय है। यही सम्प्रदाय दर्शन-जगत् में पूर्व मीमांसा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अनेक ग्रन्थ इसी हेतु से बने कि अमुक क्रिया का अमुक विधि से ही पालन होना चाहिये । प्रत्येक प्रकार के विधिविधान के लिए अलग अलग प्रकार के नियम थे। यज्ञ में आहुति देने की विशिष्ट विधियां थीं। लोगों की यह धारणा दृढ़ होती जा रही थी कि स्वर्गप्राप्ति के लिये ये क्रिया-काण्ड अनिवार्य हैं । विना यज्ञ में आहुति दिए स्वर्गप्राप्ति असम्भव है । महावीर ने इन सब धारणाओं को देखा एवं वैदिक कियाकाण्ड के पीछे होने वाली भयंकर हत्याओं का विरोध करना प्रारम्भ किया । वे खुले रूप में हिंसापूर्ण यज्ञों का विरोध करने लगे। इस विरोध के कारण उन्हें जगह-जगह अपमानित भी होना पड़ता था। किन्तु उन्होंने किसी भी प्रकार की परवाह किए विना अहिंसा का सन्देश घर-घर पहुंचाना वरावर चालू रखा । शान्ति और प्रेम के सन्देश में कभी ढिलाई न याने दी। यद्यपि वैदिक क्रिया-काण्ड का समर्थक वर्ग बहुत बड़ा एवं प्रभावशाली था किन्तु महावीर को वह न दवा सका। इसका कारण यही मालूम होता है कि एक तो महावीर स्वयं दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति थे, दूसरी बात यह है कि महावीर का जन्म एक क्षत्रिय राज-परिवार में हुस्सा था और उसका अासपास में बहुत प्रभाव था । यदि ऐसा न होता तो सम्भवतः उन्हें इतनी जल्दी सफलता न मिलती । बुद्ध के विषय में
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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