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( घ ) भी यही बात कही जा सकती है। महावीर जब अपना परिचित क्षेत्र छोड़ कर अन्यत्र गए तो उन्हें काफी यातनाएं सहनी पड़ी। इसका कारण यह था कि उस क्षेत्र में केवल उनका व्यक्तिगत प्रभाव था, न कि राजवंश का कोई असर । महावीर ने जनता को अहिंसा-सन्देश दिया। उन्होंने कहा कि आत्मशुद्धि ही सुख का सच्चा एवं सीधा उपाय है। जब तक आत्मशुद्धि न होगी, वायुशुद्धि अथवा देवताओं की प्रसन्नता से कुछ नहीं हो सकेगा। यदि आप अपने लिए सुख चाहते हैं तो उसे अपने भीतर से ही निकालिए। वह कहीं बाहर नहीं है । दूसरे प्राणियों की हत्या से आपको सुख कैसे मिल सकता है ? अपने कपाय की हत्या करिए, अपने रागद्वेष का वध करिए। इसी से आपको सच्चा सुख मिलेगा। दुःख के कारणों का नाश होने पर ही दुःख दूर होता है। जो दुःख के वास्तविक कारण हैं उन्हें नष्ट कीजिए- उनकी आहति दीजिए । दुःख का कारण तो है राग-द्वेष-कषाय और आप नाश करते हैं दूसरे प्राणियों का । हे भोले जीवो ! ऐसा करने से दुःख कैसे दूर होगा ? स्वयं सुख चाहते हो और दूसरों को दुःख देते हो, यह कहाँ का न्याय है ? जैसा हमें सुख प्रिय है वैसा दूसरों को भी सुख प्रिय है। इसलिए किसी को भी दुःख मत दो। किसी की भी हिंसा मत करो । जो दूसरे की हिंसा करता है वह सचमुच अपनी ही हिंसा करता है । हिंसा से दुःख बढ़ता है, घटता नहीं । महावीर का यह सन्देश आज के युग के लिये भी अत्यन्त उपयोगी है। इससे परलोक में कल्याण होता है, यही नहीं, अपितु इहलोक भी सुखी बनता है । भारतीय परम्परा में महावीर का अहिंसा-सन्देश आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है। · दार्शनिक विवाद : महावीर के सामने अनेक प्रकार की दार्शनिक परम्पराएँ विद्यमान थीं। नित्य और अनित्य, एक और अनेक, जड़ और चेतन आदि विषयों का ऐकान्तिक आग्रह उनकी विशेषता थी। एक परम्परा नित्यवाद पर ही सारा बोझ डाल देती थी तो दूसरी परम्परा अनित्यवाद को ही सब कुछ समझती थी। कोई परम्परा अन्तिम तत्त्व एक ही मानती थी तो किसी परम्परा में एक का सर्वथा निषेध था। कोई सारे संसार की विभिन्नता का कारण एक मात्र जड़ को मानता था तो कोई केवल प्रात्मतत्त्व से ही सब कुछ निकाल लेता था। इस प्रकार विविध प्रकार के विरोधी वाद एक दूसरे पर प्रहार करने में ही अपनी सारी शक्ति लगा देते थे । परिणाम यह होता कि दार्शनिक जगत् में जरा भी शान्ति न रहती । पारस्परिक विरोध ही दर्शन का