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जैन-दर्शन
प्रत्येक नारक समान है । आत्मा के प्रदेश भी सबके असंख्यात हैं। शरीर की दृष्टि से एक नारक का शरीर दूसरे नारक के शरीर से छोटा भी हो सकता है, समान भी हो सकता है और बड़ा भी हो सकता है, शरीर की असमानता असंख्यात प्रकार की हो सकती है। सर्व जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर होगी। क्रमशः एक-एक भाग की वृद्धि से सर्वोत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण तक पहुँचती है । इसके वीच के प्रकार असंख्यात होंगे। अतः अवगाहना की अपेक्षा से नारक के असंख्यात प्रकार हो सकते हैं । यही वात आयु के विपय में भी कही जा सकती है । यह तो सामान्य वात हई । एक नारक के जो अनन्त पर्याय कहे गए हैं वे कैसे ? शरीर और प्रात्मा को कयचित् अभिन्न मानकर वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श को भी नारक के पर्याय मानकर सोचा जाय तो नारक के अनन्तपर्याय हो सकते हैं । इसका कारण यह है कि किसी भी गुण के अनन्त भेद माने गये हैं। यदि हम किसी एक वर्ण को लें और कोई भाग एक गुगा श्याम हो, कोई द्विगुण श्याम हो, कोई त्रिगुण श्याम हो और इस प्रकार उसका अनन्तवाँ भाग अनन्त गुण श्याम हो तो वर्ण के अनन्त पर्याय सिद्ध हो सकते हैं । अन्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के विपय में भी यही बात घटाई जा सकती है । यह तो भौतिक अथवा पौद्गलिक गुणों की बात हुई। ज्ञानादि आत्मगुग्गों के विपय में भी यही बात कही जा सकती है। प्रात्मा के ज्ञानादि गुगा की तरतमता की मात्राओं का विचार करने से अनन्तप्रकान्ता की सिद्धि हो सकती है। ये सारे भेद एक नारक में कालभेद से घट सकते हैं। ऊर्ध्वता-सामान्याश्रित पर्याय कालभेद के अाधार से ही होते हैं। एक जीव कालभेद से अनेक पर्यायों को धारण करता है । ये पर्याय ऊतासामान्याश्रित विशेष हैं। यही ऊर्वताविशेप का लक्षगा है।
द्रव्य के ऊर्वतासामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा जाता है। भगवतीमूत्र और प्रजापनामूत्र में इस प्रकार के परिगणामों का वर्णन है । विशेष और पन्गिगाम दोनों द्रव्य के पर्याय है क्योंकि दोनों परिवर्तनशील है। परिणाम में काल-भेद की