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जैन दर्शन में तत्त्व
१३५ हैं, असंख्यात पृथ्वीकाय हैं, यावत् असंख्यात वायुकाय हैं, अनन्त बनस्पति हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, यावत् असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वारणव्यन्तर हैं यावत् अनन्त सिद्ध हैं। यही कारण है कि जीव पर्याय
अनन्त हैं। इस चर्चा में जो पर्याय विवक्षित हैं, वे तिर्यक् विशेष की • अपेक्षा से हैं, क्योंकि ये पर्याय अनेक देश में रहने वाले विभिन्न जीवों से सम्बन्धित हैं। इनमें सभी जीवों का समावेश हो जाता है, अतः अनेक जीवाश्रित पर्याय होने से तिर्यक् विशेष हैं।
ऊर्ध्वता विशेष की दृष्टि से सोचने पर विशेष का आधार दूसरा हो जाता है। यदि हम कहें कि प्रत्येक जीव के अनन्त पर्याय हैं और किसी जीव-विशेष के विषय में सोचें तो हमारा दृष्टिकोण ऊर्ध्वता विशेष को विषय करता है। उदाहरण के तौर पर एक नारक जीव को लेते हैं। उसके अनन्त पर्याय होते हैं। जीव-सामान्य के अनन्त पर्यायों का कथन तिर्यक् सामान्याश्रित पर्याय की दृष्टि से है, किन्तु विशेष नारकादि के अनन्त पर्याय का कथन ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्याय की दृष्टि से है । एक नारक-विशेष के अनन्त पर्याय कैसे हो सकते हैं, इसका स्पष्टीकरण यों है :-- ___एक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है । प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है । अवगाहना की अपेक्षा से स्यात् चतुःस्थान से हीन, स्यात तुल्य, स्यात् चतुःस्थान से अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से अवगाहना के समान है किन्तु श्यामवर्ण पर्याय की अपेक्षा ये स्यात् षट्स्थान हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् षट्स्थान अधिक है। इसी प्रकार शेष वर्णपर्याय, दोनों गन्धपर्याय, पाँचों रसपर्याय, आठों स्पर्शपर्याय, मतिज्ञान और मत्यज्ञानपर्याय, श्रुतज्ञान और श्रुताज्ञानपर्याय, अवधिज्ञान और विभंगज्ञानपर्याय, चक्षुर्दर्शनपर्याय, अचक्षुर्दर्शनपर्याय, अवधिदर्शनपर्याय-~-इन सभी पर्यायों की अपेक्षा से स्यात् षट्स्थान पतित हीन है, स्यात् तुल्य है, स्यात् षट्स्थान पतित अधिक है। इसीलिए नारक के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं ।२ द्रव्यदष्टि से
है कि, स्यात् पदाचा रसपर्यायनज्ञान
१-भगवती सूत्र २५१५ २-प्रज्ञापनामूत्र ५।२४६