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जैन-दर्शन
प्रदेश और परमाणु । इसी प्रकार अन्य प्रकार के सामान्यमूलक भेदों में तिर्यक् सामान्य अभीप्सित है । एक जाति का जहाँ निर्देश होता है, अनेक व्यक्तियों में एक सामान्य जहाँ विवक्षित होता है, वहाँ तिर्यक् सामान्य समझना चाहिए।
जव कालकृत नाना अवस्थाओं में किसी विशेष द्रव्य का एकत्व या अन्वय विवक्षित हो, एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थानों की एक एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, तव उस एकत्व अथवा ध्रौव्य सूचक अंश को ऊर्ध्वता सामान्य कहा जाता है। उदाहरण के लिए जव यह कहा जाता है कि जीव द्रव्याथिक दृष्टि से शाश्वत है और पर्यायाथिक दृष्टि से अशाश्वत है, तब जीव द्रव्य का अर्थ ऊर्ध्वता सामान्य से है । जब यह कहते हैं कि अव्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से नारक शाश्वत है, तव अव्युच्छित्ति नय का विषय जीव ऊर्ध्वता सामान्य से विवक्षित है । इस प्रकार जहाँ किसी जीव-विशेष या अन्य पदार्थ-विशेष की अनेक अवस्थाओं का वर्णन किया जाता है वहाँ एकत्व अथवा अन्वय सूचक पद ऊर्ध्वता सामान्य की दृष्टि से प्रयुक्त होता है।
जिस प्रकार द्रव्य या सामान्य दो प्रकार का है उसी प्रकार पर्याय अथवा विशेष भी दो प्रकार का है । तिर्यक सामान्य के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हों वे तिर्यक् विशेष हैं और ऊर्ध्वता सामान्याश्रित जो पर्याय हों वे अवता विशेष हैं। अनेक देश में भिन्न भिन्न जो द्रव्य या पदार्थविशेष हैं वे तिर्यक सामान्य की पर्यायें हैं । वे तिर्यक् विशेप हैं। अनेक काल में एक ही द्रव्य की अर्थात् उता सामान्य की जो विभिन्न अवस्थाएँ हैं-जो अनेक विशेप अथवा पर्याय हैं वे ऊर्ध्वता विशेप हैं। जीवपर्याय कितने हैं ? इसके उत्तर में महावीर ने कहा कि जीवपर्याय अनन्त हैं । यह कैसे ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा कि असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार हैं, यावत् असंख्यात स्तनितकुमार
१-भगवतीसूत्र ७।२।२७३ २.--भगवतीसूत्र ७।३।२७६