________________
जैन दर्शन में तत्त्व
न हो और फिर भी पदार्थ हो, यह परस्पर विरोधी बात है । जो सर्वथा असत् है वह सत्ता के सम्बन्ध से भी सत् नहीं हो सकता, जैसे गगनारविन्द । सत् और असत् से भिन्न कोई ऐसी कोटि नहीं, जिसमें पदार्थ रखा जा सके। इसलिए द्रव्य न स्वतः सत् है, न स्वतः असत् है, किन्तु सत्ता के सम्बन्ध से सत् है, यह कहना ठीक नहीं । द्रव्य सत् होकर ही द्रव्य हो सकता है । जो सत् न हो वह द्रव्य नहीं हो सकता । सत्ता नामक कोई ऐसा पदार्थ उपलब्ध नहीं होता जिसके सम्बन्ध से द्रव्य सत् होता हो । कदाचित् ऐसा पदार्थ मान भी लिया जाय, फिर भी समस्या हल नहीं हो सकती, क्योंकि उस पदार्थ का खुद का अस्तित्व खतरे में है। वह स्वतः सत् है या नहीं ? यदि वह स्वतः सत् है तो यह सिद्धान्त कि ‘पदार्थ सत्ता के सम्बन्ध से ही सत् होता है' खरिडत हो जाता है। यदि वह स्वतः सत् नहीं है और उसकी सत्ता के लिए किसी अन्य सत्ता की आवश्यकता रहती है तो अनवस्था दोष का सामना करना पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में यही अच्छा है कि प्रत्येक पदार्थ को स्वभाव से ही सत् माना जाय और सत् और पदार्थ में कोई भेद न माना जाय । द्रव्य और पर्याय:
द्रव्य शब्द के अनेक अर्थ होते हैं उनमें से सत्, तत्त्व अथवा पदार्थ-परक अर्थ पर हम विचार कर चुके हैं । जैन साहित्य में द्रव्य शब्द का प्रयोग सामान्य के लिए भी हुआ है । जाति अथवा सामान्य को प्रकट करने के लिए द्रव्य और व्यक्ति अथवा विशेष को प्रकट करने के लिए पर्याय शब्द का प्रयोग किया जाता है।
द्रव्य अथवा सामान्य दो प्रकार का है--तिर्यक सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । एक ही काल में स्थित अनेक देश में रहने वाले अनेक पदार्थों में जो समानता की अनुभूति होती है वह तिर्यक सामान्य है । जब हम कहते हैं कि जोव और अजीव दोनों सत् हैं, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य हैं, तव हमारा अभिप्राय तिर्यक सामान्य से है। जब हम कहते हैं कि जीव दो प्रकार का है---संसारी और सिद्ध । संसारी जीव के पाँच भेद हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि । पुद्गल चार प्रकार का है-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्ध