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जन-गंन और उनका आधार की। उनके तत्वार्थसूत्र का विवेचन हिन्दी और गुजराती दोनों भाषाओं में प्रवाहित हो चुका है । यह विवेचन भी पंडित जी की वेजोड़ कृति है। इन सब विषयों में पंडित जी से पहले किसी ने कुछ नहीं लिखा था। उन्होंने खुद अपने अध्यवसाय व अध्ययन-बल से अपना मार्ग बनाया।
उपयुक्त कार्य प्रागे पाने वाले महान् कार्य सन्मतितकं के उद्धार की भूमिका मात्र है । उन्होंने सटीक सन्मतितर्क के सम्पादन का कार्य प्रागरा में प्रारम्भ किया। यह कार्य करते-करते वीच ही में वि० सं० १९७८ में गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद में दर्शनशास्त्र क अध्यापक क रूप में उनकी नियुक्ति हो गई । अतएव पंडित जी ने पं० वेचरदास जी के सहयोग से यह कार्य नहीं रह कर पूर्ण किया। सन्मतितर्क मूल में वहत बड़ा ग्रन्ध नहीं है, किन्तु उसकी टीका दर्शन का महार्णव ही है। पंडितजी ने उस ग्रन्ध में श्राने वाले उद्धरणों का मूलस्थान खोजा।
लना ही नहीं, अपितु चन्ध के पूर्वोत्तर पलों को अन्य दार्शनिक बन्यो से निकाल कर लिया। इवान ही ने उन्हें सन्तोप न हया। टिप्पणों में प्रत्येक बाद के हेतुत्रों का इतिहास बोजने वालों के लिए भी उन्होंने मगर सामग्री दी। नचमुच उनका यह अन्य भारतीय दर्शनशास्त्र का विश्वरोप ( lojpatdia) है। ग्रन्य की प्रस्तावना भी वहत महत्या इस क अतिरिक्त मूल ग्रन्थ का संक्षिप्त विवेचन भी गुजराती धार अंग्रेजी में प्रकाशित हुया है। पंडित जी का यह कार्य सचमुच जैनपनि निहाल में स्वाक्षरी में लिखा जायगा । इन कार्य से पंडित जीन कवल जनवान काही उपकार किया है, अपितु भारतीय दर्शन का भी माान् उपकार पिया ।
लग्रमा कामपादन पूरा करते ही वे वि० सं० १९६० में कामी विश्वविद्यालय में पाए और यहीं रह कर प्रमाणा-मीमांना का पांडित्यः
नारायन रिया। इसके अतिरिक्त शानबिन्दु का सम्पादन भी बनी मकिन दोनों मायामा प्रस्तावनाओं में पंडित जी ने प्रमाणमा पर मां तुलनात्मनः नामची प्रदान की है। इसके बाद
मानकमार मल्ल ग्रन्थ मल्योपजाया नन्दावन REETरान पायाचन्द्र का सम्पादन :: भीमान विदयारामिका या विवेचन किया