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जैन-दर्शन
सम्पादन एवं अनुसन्धान-युग : ___यशोविजय की परम्परा किसी न किसी रूप में बीसवीं शताब्दी तक चलती रही। कुछ लोग छोटी-मोटी टीका-टिप्पणियाँ लिखते रहे, किन्तु कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुया कि एक नई परम्परा चल पड़ती। इधर २५-३० वर्षों से सम्पादन एवं अनुसन्धान की एक नई परम्परा चली है, जिस पर भारतीय दर्शनशास्त्र और पश्चिम के ज्ञानविज्ञान का पूरा प्रभाव पड़ा है। पाश्चात्य शिक्षण पद्धति के साथ ही साथ हमारी दृष्टि में बहुत कुछ परिवर्तन भी हुआ । हम अपने प्राचीन बाङ्मय को नई दृष्टि से देखने लगे। प्राचीन ग्रन्थों के प्रामाणिक संस्करणों पर जोर देने लगे। मुद्रण की सुविधा से इस कार्य में विशेप प्रेरणा मिली। प्राचीन ग्रन्थों को शुद्ध रूप से लोगों के सामने रखने के साथ ही साथ उन ग्रन्थों का ऐतिहासिक अन्वेषण, टिप्पणियाँ, पाठान्तर तुलनात्मक विवेचन, उद्धरण प्रादि बातों पर भी विद्वानों का ध्यान गया। इस प्रकार से विविध सम्पादन के कार्य प्रारम्भ हए । इनके अतिरिक्त प्राचीन सामग्री नए ढंग से किस प्रकार दुनिया के सामने पाए, इस पर भी विद्वानों का ध्यान गया। इसका परिणाम यह हुया कि प्राचीन ग्रन्थों के अाधार पर नवीन भापा और नूतन शैली में नए ढंग के मौलिक अन्यों का निर्मागा होने लगा। यह कार्य अनुसन्धान के अन्तर्गत ही आता है। इस प्रकार आधुनिक युग सम्पादन एवं अनुसन्धान के क्षेत्र में प्रगति की ओर बढ़ रहा है। इन दोनों दिशाओं में जैनदर्शन ने कितनी प्रगति की है, इसका संक्षिप्त परिचय यहाँ अनुपयुक्त न होगा। एतद्विषयक मुन्न्य-मुन्य ग्रन्थों का विवरण ही पर्याप्त होगा।
इन युग में सम्पादन पीर अनुसन्धान की धारा प्रारम्भ करने का श्रेय पं० सुखलाल जी मंघवी को दिया जाय तो अनुचित न होगा। उनका सर्वप्रथम कार्य कर्मग्रन्थों का चार भागों में विवेचन है, जो वि० मं० १९७४ में लिखा गया। यह कार्य हिन्दी में ही हुया । उसके बाद उन्होंने प्रतिक्रमण का हिन्दी विवेचन लिया। इसके बाद योगदर्शन और योगविगतिका नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना हिन्दी में लिग्बी। इसम उन्होंने वैदिक, बौद्ध और जैन मान्यता के अनुसार योग का तुलनात्मक विवेचन किया है । इस प्रकार की तुलना गायद अाज तक किसी ने नहीं