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जैन-दर्शन और उसका प्राधार थे, इसलिए दोनों साथ पाए । विद्या का पवित्र धाम काशी उस समय दर्शन को क्षेत्र में प्रसिद्ध था । यहाँ पाकर यशोविजय ने भारतीय दर्शनशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया। साथ ही साथ अन्य शास्त्रों का भी पागिढत्य प्राप्त किया । इनके पारिइत्य एवं प्रतिभा से प्रभावित हो इन्हें न्याय-विशारद की पदवी प्रदान की गई।
पांच-सी वर्ष की जैनदर्शन को क्षति को यदि किसी ने पूरा किया तो वे यशोविजय ही थे। इन्होंने धड़ाधड़ जैनदर्शन पर ग्रन्थ लिखने प्रारम्भ किए। घने कालव्यवस्वा नामक अन्य नव्यन्याय की शैली में लिग्यकार अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की। प्रमागाशास्त्र पर जैनतर्क भाषा और जानविन्द्र लिखकर जैन-परम्परा का गौरव बढ़ाया । नय पर भी नयप्रदीप, नयाहस्य श्रीर नबोपदेग आदि ग्रन्थ लिखे । नयोपदेग पर तो नशामृततरंगिणी नामक स्वोपन टीका भी लिखो। इसके अतिरिक्त प्रष्ट सहन्त्री पर अपना विवरण लिखा। हरिभद्रकृत मास्ववार्तासमुच्चय पर स्थानादकल्पलता नामक टीका भी लिखी । इस प्रकार अप्टमहन्त्री श्रीरशान्त्रवार्तासमुच्चय को नया रूप मिला। भापारहस्य, प्रमागगरहस्य, वादरहस्य धादि अनेक ग्रन्थों के अलावा न्यायखण्डखाद्य और मायालोर लिवकर नवीन माली में ही नैवायिकादि दार्शनिकों की मान्यताओं का गठन भी लिया।
दर्शन के अतिरिक्त योगशास्त्र, अलंकार, याचारशास्त्र आदि से गम्बन्ध रखने वाले अन्य लिये । नत के अतिरिक्त प्राचीन गुजराती प्रादि मापात्रों में भी उन्होंने काफी लिसा है । इस तरह अकेले यनोविजय ने ही जन-साहित्य का वहत बड़ा उपकार किया है। जन-वाङ्मय का गोल बटाने में उन्होंने पल भी उठा न सा । जैनदर्शन की परपन की नग्मान मे उनाने अपना पूर्ण योग दिया। उनका यह
किन दर्शन में पड़ी में हमर रहेगा।
सोविजय के तिरिस इन युग में मान्यतनागर ने सप्तपदाओं, भामायण पादानावानरल म्यामादमुक्तावली, धादि दानिक
नियमिनदास नेमागी-नरंगिगी को रचना नन्द चार