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जैन-दर्शन
जो वैदिक और औपनिपदिक उद्धरणों से समलंकृत है। इस प्रकार पंडित जी का सम्पादन और अनुसंधान कार्य एक दृष्टि से पूरे भारतीय दर्शनशास्त्र पर हुया है। जैनदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन करने की नवीन दिशा का निर्माण कर उन्होंने भारतीय वाङ्मय की बहुत बड़ी सेवा की है।
इस क्षेत्र में पंडित जी की परम्परा के निभाने वाले दो और मुख्य व्यक्ति हैं--पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य एवं पं० दलसुख मालवगिया । पं० महेन्द्रकुमार जी के सम्पादकत्व में प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चयविवरण, तत्त्वार्थ की थ तसागरी टीका श्रादि कई ग्रन्थ प्रकाशित हुए। प्रमेयकमलमार्तण्ड जैन प्रमाणशास्त्र का उत्कृष्ट ग्रन्थ है। पंडितजी ने इसका सम्पादन तुलनात्मक टिप्पगणादि देकर किया है । इस ग्रन्थ के सम्पादन में काफी परिश्रम करना पड़ा है। इसी प्रकार न्यायकुमुदचन्द्र का सम्पादन भी काफी महत्वपूर्ण है। इन दोनों वृहत्काय ग्रन्थों की प्रस्तावनाएँ ऐतिहासिक एवं दार्शनिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं । न्यायविनिश्चयविवरण में अकलंक के मुल और वादिराज के विवरण की अन्य दर्शनों के साथ तुलना की गई है। प्रस्तावना में सम्पादक ने स्याहाद सम्बन्धी अनेक भ्रमों के निरसन का गफल प्रयत्न किया है । तत्त्वार्थ की श्रु तसागरी टीका की प्रस्तावना में अनेक दार्शनिक एवं अन्य विषयों की विशद चर्चा की गई है। उसका लोकवर्गान पीर भूगोल भाग विशेष महत्व का है । इस भाग में जैन, बौद्ध र बाहागा परम्परा के मन्तव्यों की तुलना की गई है।
पं० दलमुख मालवगिया द्वारा सम्पादित न्यायावतार-बात्तिक-वृत्ति जैन न्याय का प्राचीन एवं महत्वपूर्गा ग्रन्थ है। इसकी मूल कारिकाएँ निगमकत हैं, और उन पर पद्यवद्ध वार्तिक और उगकी गद्य वृत्ति दोनों मान्यानायं कृत है, जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं । सम्पादक पं० दलमा मानगिया ने उनकी विस्तृत भूमिका में ग्रागमयुग मे लेकर
तहजार वर्ग नर के जनदगंन के प्रमागा-प्रमेय विषयक चिन्तन एवं विका का नियमिक व तुलनात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण बिग दिया है। अन्य अन्न में विद्वान् गम्पादक ने अनेक