________________
जैन-दर्शन
थीं जैसे भव्य और अभव्य का विभाग, जीवों की संख्या का प्रश्न आदि, उन पर उन्होंने तर्क का प्रयोग करना उचित न समझा। उन बातों को यथावत् ग्रहण कर लिया। जो बातें तर्कवल से सिद्ध या प्रसिद्ध की जा सकती थीं उन बातों को उन्होंने अच्छी तरह से तर्क की कसौटी पर कसा । ____ सिद्धसेन का कथन है कि धर्मवाद दो प्रकार का है-अहेतुवाद और हेतुवाद । भव्याभव्यादिक भाव अहेतुवाद के अन्तर्गत हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि नियम दुःख का नाश करने वाले हैं इत्यादि बातें हेतुवाद का विषय हैं । सिद्धसेन का हेतुवाद और अहेतुवाद का यह विभाग हमें दर्शन और धर्म क्षेत्र का स्मरण कराता है। हेतुवाद तर्क पर प्रतिष्ठित है अतः वह दर्शन का विषय है। अहेतुवाद श्रद्धा पर प्रतिष्ठित है अतः वह धर्म का विषय है । इस प्रकार सिद्धसेन ने परोक्षरूप से दर्शन और धर्म की मर्यादा का संकेत किया है।
सिद्धसेन ने एक विल्कुल नई परंपरा स्थापित की । वह परंपरा है दर्शन और ज्ञान का अभेद । जैनों की आगमिक परंपरा थी सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान को भिन्न मानना । इस परंपरा पर उन्होंने प्रहार किया और अपने तर्कवल से यह सिद्ध किया कि सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । सर्वज्ञत्व के स्तर पर पहुँच कर दोनों एकरूप हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अवधि और मनःपर्यय ज्ञान को एक सिद्ध करने का प्रयत्न किया। साथ ही साथ ज्ञान और श्रद्धा को भी एक सिद्ध किया । जैनागमों में प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों के स्थान पर उन्होंने छः नयों की स्थापना की । नैगम को स्वतन्त्र नय न मानकर संग्रह और व्यवहार में समाविष्ट कर दिया। इतना ही नहीं अपितु उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि जितने वचन के प्रकार हो सकते हैं
१-सन्मतितर्क ३ : ४३, ४४ २–ज अपुढे भावो जाणइ पासइ य केवली णियमा । तम्हा तं गाणं दंसरणं च अविसेसो सिद्धं ॥
-सन्मतितर्क २ : ३०