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जैन दर्शन और उसका ग्राधार
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उतने ही नय के प्रकार हो सकते हैं प्रौर जितने नयवाद हो सकते हैं उतने ही मत-मतान्तर भी हो सकते हैं ।"
ज्ञान और क्रिया के ऐकान्तिक ग्राग्रह को चुनौती देते हुए सिद्धसेन ने घोषणा की कि ज्ञान गौर किया दोनों ग्रावश्यक हैं । ज्ञान - रहित क्रिया उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार क्रिया - रहित ज्ञान निकम्मा है । ज्ञान और क्रिया का सम्यग् संयोग ही वास्तविक सुख प्रदान कर सकता है | जन्म श्रीर मरण के दुःख से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान और किया दोनों श्रावश्यक हैं।
न्यायावतार और बत्तीसियों में भी सिद्धसेन ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि का पूर्ण प्रयत्न किया है । सिद्धसेन ने सचमुच जैन दर्शन के इतिहास में एक नए युग की स्थापना की ।
समन्तभद्र :
श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन का जो स्थान है वही स्थान दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र का है । समन्तभद्र की प्रतिभा विलक्षण थी इसमें कोई शंका नहीं । उन्होंने स्याद्वाद की सिद्धि के लिए अथक परिश्रम किया । उनकी रचनात्रों का छिपा हुआ लक्ष्य स्याद्वाद ही होता है | स्तोत्र की रचना हो तो क्या और दार्शनिक कृति हो तो क्या - सभी का लक्ष्य एक ही था और वह था स्याद्वाद को सिद्धि | सभी वादों की ऐकान्तिकता में दोप दिखा कर उनका
कान्तवाद में निर्दोष समन्वय कर देना समन्तभद्र की ही खूवी थी । स्वयम्भुस्तोत्र में चौबीस तीर्थकरों की स्तुति के बहाने दार्शनिक तत्त्व का क्या ही सुन्दर एवं अद्भुत समावेश किया है । यह स्तोत्र, स्तुतिकाव्य का उत्कृष्ट नमूना तो है ही, साथ ही साथ इसके अन्दर भरा हुग्रा दार्शनिक वक्तव्य अत्यन्त महत्त्व का है । प्रत्येक
-जावश्या वयवहा नावश्या चंव होंति जावया रायवाया तावया चैव
२- सम्मतितर्क ३ : ६८
यवाया ।
परसमया ॥
सन्मतितकं ३ : ४७