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जैन दर्शन र उसका ग्राधार
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है वह मात्र लोक व्यवहार है । बुद्धि से विवेचन करने पर हम किसी एक स्वभाव तक नहीं पहुँच सकते । हमारी बुद्धि किसी एक स्वभाव का अवधारण नहीं कर सकती। इसलिए सारे पदार्थ अनभिलाक्ष्य हैं, निःस्वभाव हैं । इस प्रकार शून्यवाद ने तत्त्व के निषेधपक्ष पर भार दिया | विज्ञानवाद ने विज्ञान पर जोर दिया और कहा कि तत्त्व विज्ञानात्मक ही है । विज्ञान से भिन्न बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं की जा सकती । जब तक व्यक्ति को विज्ञप्तिमात्रता के साथ एकरूपता का बोध नहीं हो जाता तब तक ज्ञाता श्रौर ज्ञेय का भेद बना ही रहता है। इसके विपरीत नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक वाह्यार्थ की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने लगे । सांख्यों ने सत्कार्यवाद का समर्थन किया और कहा कि सव सत् है । हीनयान बौद्धों ने क्षणिकवाद की स्थापना की और कहा कि ज्ञान और ग्रर्थ दोनों क्षणिक हैं। इसके विपरीत मीमांसकों ने शब्द यादि कुछ क्षणिक जैसे पदार्थों को भी नित्य सिद्ध किया । नैयायिकों ने शब्दादि पदार्थों को क्षणिक और आत्मादि पदार्थों को नित्य माना । इस प्रकार भारतीय दर्शन के क्षेत्र में भारी संघर्ष होने लगा। जैन दार्शनिक भी इस अवसर को खोनेवाले न थे । उन्हें इस संघर्ष से प्रेरणा मिली। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने भी इस क्षेत्र में पैर रखा और डंके की चोट सबके सामने ग्राए ।
महावीरोपदिष्ट नयवाद और स्याद्वाद को मुख्य ग्राधार बनाकर सिद्धसेन ने अपना कार्य प्रारम्भ किया । सिद्धसेन ने सन्मतितकं,
१ - ' चातुष्कोटिकं च महामते ! लोकव्यवहार : लंकावतार मूत्र, पृ० १८८
२ - बुद्धया विविच्यमानानां स्वभावो नावधार्यते । तस्मादनभिलाप्यास्ते निःस्वभावाश्च देशिता : ॥ लंकावतार सूत्र, पृ० ११६
२- यावद् विज्ञप्तिमात्रत्वे विज्ञानं नावतिष्ठते । ग्राह्यं यस्य विषयस्तावन्नविनिवर्तते ।
- त्रिशिका का० २६०
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