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जैन-दर्शन
विद्वानों ने हिन्दी तथा गुजराती आदि भाषाओं में तत्त्वार्थसूत्र पर सुन्दर विवेचन लिखे हैं। __ इस प्रकार तत्वार्थसूत्र के पास पहुँचते-पहुँचते हमारा 'पागम युग' समाप्त हो जाता है। इसके बाद 'पागम युग' के अनेक संस्कारों को लिए हए 'अनेकान्त-स्थापन-युग' आता है । इस युग में जैन-दर्शन का स्तर काफी ऊँचा उठ जाता है । अनेकान्त-स्थापना-युग :
भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नागा जुन ने एक बहुत बड़ी हल-चल मचा दी थी। जब से नागार्जुन इस क्षेत्र में पाए, दार्शनिक वादविवादों को एक नया रूप प्राप्त हया । श्रद्धा के स्थान पर तर्क का साम्राज्य हो गया। पहले तर्क न था, ऐसी बात नहीं हैं। तक के होते हुए भी अधिक काम श्रद्धा से ही चल जाता था। यही कारण था कि दर्शन का व्यवस्थित प्राकार न बन पाया। नागार्जुन ने इस क्षेत्र में आकर एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। यह क्रान्ति बौद्ध-दर्शन तक ही सीमित न रही। इसका प्रभाव भारत के सभी दर्शनों पर बड़ा गहरा पड़ा । परिरणामस्वरूप जैन दर्शन भी उससे अछ्ता न रह सका। सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे महान् ताकिकों को पैदा करने का बहुत कुछ श्रेय नागाजुन को ही है। यह समय पाँचवीं-छठी शताब्दी का है । जैनाचायों ने इस युग में महावीर के समय से विखरे रूप में चले अाते हुए अनेकांतवाद को स्थिर और सुनिश्चित रूप प्रदान किया। इसलिए यह युग 'अनेकान्त-स्थापन युग' के नाम से पुकारा जा सकता है। इस युग म पाँच प्रसिद्ध जैनाचार्य हए हैं। सिद्धसेन और समन्तभद्र के अतिरिक्त मल्लवादी, सिंहगणि और पात्रकेसरी के नाम उल्लेखनीय हैं । सिद्धसेन: ____नागार्जुन ने शून्यवाद का समर्थन किया । शून्यवादियों के अनुसार तत्त्व न सत् है, न असत् है,न सदसत् है, न अनुभय। 'चतुष्कोटिविनिमुक्त' रूप से तत्त्व का वर्णन किया जा सकता है। विचार की चारों कोटिया तत्त्व को ग्रहण करने में असमर्थ हैं। विचार जिस चीज को ग्रहण करता