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पुरो वचन अाज के विकास-युग में, चारों ओर विकास, प्रगति और अभ्युदय हो रहा है । मानव प्रत्येक क्षेत्र में, विकास और प्रगति के पद चिन्ह छोड़ता चला जा रहा है । विज्ञान, दर्शन, साहित्य, कला और भाषा के क्षेत्र में भी मानव मस्तिष्क ने अद्भुत विकास एवं प्रगति की है।
जैन साहित्य भी उस विकास एवं प्रगति से अप्रभावित कैसे रह सकता था ? यद्यपि जैन-विचारधारा का विराट् एवं विपुल साहित्य-संस्कृत, प्राकृत तथा भारत की अन्य प्रान्तीय भाषाओं में चिरकाल से उपचित होता चला आ रहा था, तथापि हिन्दी भाषा में वह अत्यन्त मन्दगति से आ रहा था । परन्तु हर्ष है, कि अब राष्ट्र भाषा हिन्दी में भी जैन साहित्य अपने विविध रूपों में द्रुत गति से अवतरित हो रहा है । मुझे आशा है, भविष्य में जैन विद्वान, अपनी श्रेष्ठ कृतियों से राष्ट्रभाषा के भण्डार को भरते रहेंगे । ___'जैन-दर्शन' पर संस्कृत एवं प्राकृत में विपुल मात्रा में लिखा गया हैसरल से सरल और कठिन से कठिन । किन्तु हिन्दी भाषा में इस विषय पर मुनिराज श्री न्यायविजय जी का जन-दर्शन' सर्व प्रथम सफल प्रयास कहा जा सकता है । यह ग्रन्थ न बहुत गहरा है और न बहुत उथला । 'दर्शन' जैसे गम्भीर विषय को इसमें सरल, सुबोध्य एवं सुन्दर भाषा में सर्वजन भोग्य रूप में प्रस्तुत किया है। ___ डाक्टर महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य का 'जैन-दर्शन' भी जनता के हाथों में पहुंच चुका है । उसकी भाषा, शैली और विपय सभी गम्भीर हैं। प्रमाण और प्रमाण के फल की इसमें काफी लम्बी चर्चा की गई है। षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व, और सप्त नयों का संक्षिप्त,-परन्तु सारभूत परिचय दे दिया है। वह ग्रन्थ विस्तत, गम्भीर, और तात्विक आलोचनात्मक है। सामान्य पाठक उससे उतना लाभान्वित नहीं हो सकता, जितना दर्शन-क्षेत्र का एक सुपरिचित व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है ।
डाक्टर मोहनलाल मेहता का 'जैन-दर्शन' अपनी नयी शंली, सुन्दर भाषा और उच्च भावनाओं को लेकर पाठकों के समक्ष प्रारहा है। निःसन्देह