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है कि कुछ स्थलोंपर महेता जी का चिन्तन स्वतन्त्र राह भी पकड़ लेता है, फिर भी वह पाठक को चिन्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रेरणा देता है, इसमें तो कोई सन्देह है ही नहीं। ___ ग्रन्थ को अद्यतन सुन्दर रूप में प्रकाशित करने की ओर ज्ञानपीट के विवेकशील अधिकारियों ने पर्याप्त ध्यान रखा है। आशा है दर्शन-क्षेत्र का विज्ञ पाठक प्रस्तुत जैन दर्शन का हृदय से समादर करेगा. और भविष्य में मेहता जी से अन्य कोई अभिनव भव्य कृति प्राप्त करने के लिए प्रेरणास्रोत बनेगा । बस, आज इतना ही। सरस्वती के महामन्दिर में सरस्वती के बरद पुत्र की यह भेंट चिरायु हो..."आनन्द !
आगरा वीर जयन्ती: १६५६
--उपाध्याय, अमर मुनि