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जैन-दर्शन और उसका आधार
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ऐसा आदर्श है - जहाँ ऐहिक एवं पारलौकिक सभी स्वार्थों का अन्त हो जाता है । वहाँ न इस लोक के स्वार्थ सताते हैं, न परलोक का प्रलोभन व्याकुलता उत्पन्न करता है । वह ऐसी साम्यावस्था है, जहाँ कोई किसी से कम योग्य अथवा अधिक योग्य नहीं रहने पाता । वह अवस्था योग्यता और अयोग्यता, अधिकता और न्यूनता, हीनता और श्रेष्ठता - सभी से परे है ।
जहाँ विषमता मूलतः नष्ट हो जाती है वहाँ भेदभाव का कोई अर्थ नहीं । प्राणी जगत् के प्रति दृष्टिविषयक साम्य का अर्थ हैजीव जगत् के प्रति पूर्ण साम्य । ऐसी समता कि जिसमें न केवल मानवसमाज या पशु-पक्षीसमाज ही समाविष्ट हो, अपितु वनस्पतिजमे अत्यन्त सूक्ष्म जीवसमूह का भी समावेश हो । यह दृष्टि विश्व - प्रेम की अद्भुत दृष्टि है । विश्व का प्रत्येक प्रारणी चाहे वह मानव हो या पशु, पक्षी हो या कीट, वनस्पति हो या अन्य क्षुद्र जीव - सब श्रात्मवत् हैं। किसी भी प्राणी का वध करना अथवा उसे कष्ट पहुँचाना, ग्रात्मवध व ग्रात्मपीड़ा के समान है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भूमिका पर प्रतिष्ठित यह साम्यदृष्टि श्रमण परम्परा का प्रारण है । सामान्य जीवन को ही ग्रपना चरम लक्ष्य मानने वाला साधारण व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुँच सकता । यह भूमिका स्व और पर के अभेद की पृष्ठभूमि है । यही पृष्ठभूमि श्रमण संस्कृति का सर्वस्व है ।
श्रमण-परम्परा की अनेक शाखाएँ रही हैं और आज भी मौजूद हैं । जैन, बौद्ध, चार्वाक, आजीवक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो स्पष्ट रूप से श्रमल संस्कृति की शाखाएँ हैं । चार्वाक और ग्राजीवक भी इसी परम्परा की शाखाएँ हैं, किन्तु दुर्भाग्य से आज उनका मौलिक साहित्य उपलब्ध नहीं है । यही कारण है कि निश्चित रूप से इनके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । ऐसा होते हुए भी इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि ये दोनों परम्पराएँ वैदिक परम्परा की विरोधी रही हैं । इन परम्परात्रों ने भी वैदिक परम्परा से लोहा लेने
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