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जैन-दर्शन
रहा है । यह आदर्श मनुष्य की स्वार्थ-पूर्ति का सबसे बड़ा प्राधार है। यह अाधार कृत्रिम नहीं, अपितु स्वाभाविक है । इसी का नाम मात्स्य-न्याय-मत्स्य-गलागल (Logic of fish) है। संसार की गतिविधि में इस न्याय का सबसे अधिक भाग है-सबसे बड़ा हाथ है । हमारी साधारण प्रवृत्तियों का यही अाधार है। हमारी यही वृत्ति वर्ग-संघर्ष को उत्पन्न करती है । इसी वृत्ति के कारण समाज में वैषम्य पैदा होता है । यही भावना उच्च और नीच, छोटा और बड़ा, श्रेष्ठ और निकृष्ट, स्पृश्य और अस्पृश्य, सेवक और स्वामी, शोषक और शोषित वर्गों के प्रति उत्तरदायी है। श्रमरण संस्कृति : . यह धारा मानव के उन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है, जो उसके वैयक्तिक स्वार्थ से भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में श्रमण-परम्परा साम्य पर प्रतिष्ठित है। यह साम्य मुख्य रूप से तीन बातों में देखा जा सकता है :-(१) समाज विषयक (२) साध्य विषयक (३) प्राणी जगत् के प्रति दृष्टि विषयक । समाज-विषयक साम्य का अर्थ हैसमाज में किसी एक वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्टत्व या कनिष्ठत्व न मान कर गुणकृत एवं कर्मकृत श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व मानना । श्रमण-संस्कृति, समाज-रचना एवं धर्म-विषयक अधिकार की दृष्टि से 'जन्मसिद्ध वर्ण और लिंगभेद को महत्त्व न देकर व्यक्ति द्वारा समाचरित कर्म और गुण के आधार पर ही समाज-रचना करतो है । उसकी दृष्टि में जन्म का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि पुरुषार्थ और गुण का । मानव-समाज का सही आधार व्यक्ति का प्रयत्न एवं कर्म है, न कि जन्मसिद्ध तथाकथित श्रेष्ठत्व । केवल जन्म से कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं होता। हीनता और श्रेष्ठता का वास्तविक आधार स्वकृत कर्म है । साध्य विषयक साम्य का अर्थ है, अभ्युदय का एक सरीखा रूप । श्रमण-संस्कृति का साध्य-विषयक आदर्श वह अवस्था है, जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं रहत.। वह एक
१-जैन धर्म का प्राण, पृ० १ २-भगवती सूत्र, ६, ६, ३८३