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जैन-दर्शन में कोई कमी न रखी। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक परम्पराएँ भी श्रमण संस्कृति को आधार बनाकर प्रचलित हुई जिनमें से कुछ वैदिक परम्परा के प्रभाव से प्रभावित हो उसमें समा गईं। वैष्णव और शैव सम्प्रदायों का इतिहास इस मत की बहुत कुछ पुष्टि करता है । कुछ लोग सांख्य सम्प्रदाय के विषय में भी यही धारणा रखते हैं । कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि श्रमण संस्कृति की दो मुख्य शाखाएँ आज भी जीवित हैं और वे हैं जैन और बौद्ध । ये परम्पराएँ आज भी खुले तौर पर यह कहती हैं कि हम अवैदिक हैं। - जैन और बौद्ध, दोनों परम्पराएँ वेदों को प्रमाण नहीं मानतीं। वे यह भी नहीं मानतीं कि वेद का कर्ता ईश्वर है अथवा वेद अपौरुषेय है। ब्राह्मण वर्ग का जाति की दृष्टि से या पुरोहित के नाते गुरुपद भी स्वीकार नहीं करतीं। उनके अपने-अपने ग्रन्थ हैं, जो निर्दोष प्राप्त व्यक्ति की रचनाएँ हैं। उनके लिए वे ही ग्रंथ प्रमाणभूत हैं। जाति की अपेक्षा व्यक्ति की पूजा करना दोनों को मान्य, है और उस व्यक्ति-पूजा का आधार है गुण और कर्म । दोनों परम्पराओं के साधक और त्यागी वर्ग के लिए श्रमण, भिक्षु, अनगार, यति, साधु, परिव्राजक, अर्हत्, जिन आदि शब्दों का प्रयोग होता रहा है। एक 'निर्ग्रन्थ' शब्द ऐसा है, जिसका प्रयोग जैनपरम्परा के साधकों के लिए ही हया है। यह शब्द जैन ग्रन्थों में 'निग्गंथ' और बौद्ध ग्रन्थों में 'निग्गंठ' के नाम से मिलता है ! इसीलिए जैनशास्त्र को 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' भी कहा गया है । यह 'निग्गंथ पावयण' का संस्कृत रूप है ।
'श्रमरण' शब्द का अर्थ :
श्रमण-परम्परा के लिए प्राकृत साहित्य में 'समण' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन-सूत्रों में जगह-जगह 'समरण' शब्द आता है, जिसका अर्थ होता है साधु । उक्त 'समरण' शब्द के तीन रूप हो सकते हैं :-श्रमण, समन और शमन । श्रमण शब्द 'श्रम्' धातु से वनता है । 'श्रम्' का अर्थ होता है-परिश्रम करना। :