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सो उत्तरपक्ष की तरह उसमें सहायक न होने के आधार पर न मानकर पागम से प्रमाणित सहायक होने के आधार पर ही मानता है"- सो उसका यह लिखना परस्पर विरुद्ध ही प्रतीत होता है, क्योंकि एक ओर तो उसे अयथार्थ कारण कहना और दूसरी ओर उसे भूतार्थरूप से सहायक भी मानना, ये दोनों'वातें परस्पर में विरुद्ध ही हैं। हाँ यदि समीक्षक अयथार्थरूप से महायक कहना या मानना स्वीकार करले तो पूरा विवाद ही समाप्त हो जाय, क्योंकि जो अयथार्थरूप से कारण होता है, उसे अयथार्थ रूप अर्थात् नयविशेप की अपेक्षा उपचार से ही सहायक माना जा सकता है, अभी तक हमने समीक्षक का जितना भी साहित्य पढ़ा है, उसमें कहीं भी इनके द्वारा उल्लिखित ऐसा आगम उपलब्ध नहीं हुआ, जिससे समीक्षक के अभिप्रायानुसार अन्य के कार्य में वाह्य निमित्त भूतार्थरूप से सहायक होता है, इसकी पुष्टि की गई है।
- कयन १६ के सम्बन्ध में समाधान:-पंचास्तिकाय गाथ १३१, १४८, व १५० को टीकानों को और गाथा १५६ को ध्यान में रखकर उत्तरपक्ष ने जो समाधान किया था, उसकी आलोचना करते हुए समीक्षक (स० पृ० ५२ पर) एक ओर तो यह लिखता है कि "प्रेरक निमित्त के बल से कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है" और दूसरी ओर वह यह भी लिखता है कि "पूर्व पक्ष यह कहाँ मानता है कि वाह्य सामग्री दूसरे को वलात् अन्यथा परिणामती है"-सो इस सम्बन्ध में हमारा कहना यह है कि जब प्रेरक निमित्त के बल पर उपादान का कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है तो प्रेरक निमित्त के बल पर उपादान द्रव्य के. कार्य का वलात् अन्यथा परिणमाना तो कहलाया ही। दुःख है कि समीक्षक अपनी मान्यता के समर्थन में ऐसा आरोप भी करता जाता है और साथ ही यह घोपणा भी करता जाता है कि यह सव कथन हम आगम के अनुसार ही कर रहे हैं । जिसे हम वाह्य निमित्त कहते हैं, वह भी किसी विवक्षित एक द्रव्य का कार्य है और जिसे हम बाह्य निमित्त से भिन्न काल प्रत्यासत्तिवश दूसरे द्रव्य का कार्य कहते हैं, ये दोनों एक काल में वधे हुए हैं। इसीलिये यह सवाल ही नहीं उठता कि जवतक उपादान को प्रेरक निमित्त का सहयोग नहीं मिलता, तबतक उपादान अपना कार्य करने में असमर्थ रहता है। वस्तुतः जनदर्शन में प्रेरक निमित्त नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । आगम में प्रयोजनवश किये गये शब्द प्रयोगों के आधार पर हम जो दो प्रकार के निमित्त कह आये हैं - एक क्रिया द्वारा जो निमित्त होते हैं वे और दूसरे जो क्रिया के माध्यम से निमित्त नहीं होते ये दोनों ही उदासीनरूप से असद्भूत व्यवहारनय से ही निमित्त कहे जाते हैं । परमार्थ से न कोई किसी का निमित्त ही होता है, और न कोई किसी का सहायक ही होता है । . - कथन १व का समाधान:-(क) मूलराधना में (भगवतीपाराधना में) "वलयाइ कम्माइ" यह गाथा आई है । उसको ध्यान में रखकर हमने समीक्षक के कथन का जो उत्तर दिया था, उसके संबंध में समीक्षक (स० पृ० ५३ में) एक प्रोर यह भी लिखता है कि "उत्तरपक्ष ने अपने इस वक्तव्य में जो कुछ लिखा है, वह पूर्वपक्ष के लिये विवाद की वस्तु नहीं है: क्योंकि वह पागम के अनुसार है। और दूसरी ओर वह कर्मो की बलवत्ता को वास्तविक रूप से स्वीकार करके कमोदय को प्रेरक रूप से यथार्थ में कार्यकारी मानता है । जब कि वस्तुस्थिति यह है कि यदि कर्मोदय में अनुरंजायमान भी तो वाह्य वस्तु में इण्टानिष्ट बुद्धि भी न करे तो कर्मोदय के होने पर भी स्वभाव वेदन के काल में आत्मा की कोई हानि नहीं होती। मात्र इसीलिए हो क्षपकाचार्य क्षपक को कमोदय में