________________
६२
अनुरंजायमान न होने की इस गाथा द्वारा प्रेरणा दे रहे हैं । इसलिए समीक्षक ने उक्त गाथा के आधार पर जो अर्थ फलित करना चाहा है, वह उस गाथा से फलित नहीं होता, ऐसा यहां समझना चाहिये।
(ख) स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा गाथा २११ में जो पुद्गल की शक्ति का उल्लेख दृष्टिगोचर होता है, सो यह कथन भी जीव की अपेक्षा असद्भूत व्यहवारनय का विषय है। और असद्भूत व्यवहारनय नैगमनय का अवान्तर भेद है। इसलिये लोक में उपचार से जितना भी कथन चलता.है वह सर्वानिगमनय का विपय होने से भापाशास्त्र के अनुसार प्रागम में भी प्रयुक्त होता है। वस्तुतः कर्मोदय केवलज्ञान के होने में बाधक नहीं है और हो भी नहीं सकता: क्योंकि वह परद्रव्य है, आत्मा की स्वतन्त्रता का घात करे ऐसी शक्ति उसमें नहीं है । आत्मा ही स्वयं अपने अज्ञान के कारण उसकी प्राधीनता को स्वीकार कर परतंत्र होकर केवलजान को उत्पन्न नहीं कर पाता, किन्तु जब वह अपने स्वभाव के अवलम्बन पूर्वक स्वसम्वेदनरूप श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के बल से प्रात्मा में स्थित होकर अन्तमुहूर्त में केवलज्ञान को उत्पन्न करता है, तब जिसे. हम कर्म की वलवत्ता कहते हैं, वह स्वयं समूल नोश को प्राप्त हो जाती है।
कथन १६ फा समाधान:-कथन १६ में समीक्षक ने स्वामि कातिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३१ को आधार मानकर हमारे कथन की आलोचना की है, उससे इतना ही फलित होता है कि वह द्रव्यकर्म के उदय को जीव के शुभाशुभभावों में भूतार्थरूप से सहायक मानकर कार्यकारी मानना चाहता है, किन्तु जव कि समीक्षक कर्मोदय को जीव के शुभाशुभभावों में अयथार्थ निमित्त कारण मानता है, इसलिये वह यथार्थ में सहकारी निमित्त होकर कार्यकारी कैसे हो सकता है ? इसका उसे स्वयं विचार करना चाहिए । फिर भी ऐसी अयथार्थ वात के समर्थन में उसने (स० पृ०५५ से लेकर ५८ तक के) तीन पेज रंग डाले, इसका हमें आश्चर्य है; क्योंकि कारण अयथार्थ हो और भूतार्थरूप से वह दूसरे के कार्य में सहायक हो यह निकाल में नहीं बन सकता।
फथन२०, २१, २२ का समाधान:- इन तीनों कथनों में समीक्षक बाह्य निमित्त को तद्भिन्न अन्य .द्र व्य के कार्य का उपादान कर्ता, यथार्थ कर्ता और मुख्य कर्त्ता तो नहीं मानता, किन्तु वह निमित्त कर्ता, अयथार्य कर्ता और उपचरित कर्ता अवश्य मानता है । सो इससे यही फलित होता है कि जो अयथार्थ कर्ता या उपचरित कर्ता होता है, वह उपादानकर्ता या मुख्य कर्ता के कार्य की परिणाम लक्षण या क्रिया लक्षण क्रिया तो कर ही नहीं सकता, और इसीलिए ही उसे निमित्तकर्ता या अयथार्थ कर्ता या उपचरितकर्ता समीक्षक भी स्वीकार करता है; किन्तु उसका कहना इतना अवश्य है कि "जो अयथार्थ कर्ता होता है वह अपने काल में होने वाले 'तद्भिन्न अन्य द्रव्य के कार्य में सहायता अवश्य करता है , अन्यथा उसमें कर्त्तापने का व्यवहार ही नहीं किया जा सकता है । वह अयथार्थ तो इसलिये है कि वह तद्भिन्न अन्य द्रव्य के कार्यरूप नहीं परिणत होता है और उसे कर्ता इसलिये कहा गया है कि वह तद्भिन्न अन्य द्रव्य के कार्य में सहायता अवश्य करता है ।"
अब देखना यह है कि इस विषय में आगम क्या है? यह तो मानी हुई बात है कि निमित्त प्रायोगिक या विस्रसा किसी प्रकार का ही क्यों न हो, कार्य के साथ उसकी बाह्य व्याप्ति होती है।
यतः कुम्भकार घट निष्पत्ति में घटकार्य का निमित्तकर्ता, अयथार्थ कर्त्ता या उपचरित कर्ता कहा जाता . है । इसलिये यहां पर कुम्भकार की घटरूप कार्य के साथ बाह्य व्याप्ति होने पर भी वह (कुम्भकार)