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में उपादान का जो सुनिश्चित लक्षण कहा है, वह न भी हो तो भी प्रेरक निमित्तरूप द्रव्यकर्म के वल पर जीव को उसरूप परिणमना ही पड़ता है। हमें दुःख है कि समीक्षक ने इन गाथानों पर से यह अर्थ फलित करने की चेष्टा कैसे की है, जबकि इन गाथानों द्वारा भेदज्ञान की कला को पुष्ट करने के अभिप्राय से ही जीवों के विभावभावों को परकी और के झुकाववश ही परभाव या कर्म के उदयजन्य कहा गया है । परमार्थ से देखा जाय तो जीव स्वयं ही प्रज्ञानवश इन भावों का कर्ता होता है, पुद्गल कम नहीं। हम तो समीक्षक से यही आशा करते हैं कि वह पागम में उद्देश्यपूर्वक की गई कथनी को ध्यान में रखकर ही उसका फलिताथं फलित करने की चेष्टा करेगा, ऐसे प्रसंग पर विशेष क्या संकेत करें ?
कथन १३ का समाधान:-हमने समयसार गाथा २८१ के आधार पर यह लिखा है कि "जिसको निमित्तकर जो भाव होता है, वह उसमे जायमान हुमा है- ऐसा कहना करणानुयोग प्रागम की परिपाटी है, जो मात्र किस कार्य में कौन निमित्त है, इसे मूचित करने के अभिप्राय से ही आगम में निर्दिष्ट की गई है" । इसलिये यह अभिप्राय हमने प्रमद्भुत व्यवहारनय से ही व्यक्त किया था। यह सच है कि लोक में भी यह परिपाटी प्रचलित है, परन्तु विचारकर देखा जाये तो जैनागम के अनुसार इस परिपाटी को ध्यान में रखकर नविशेष के अनसार जिनागम में इसे स्वीकार किया है। बाघ निमित्त अन्य द्रव्य के कार्य में परमार्थ से सहायक तो नहीं होता. क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणाम स्वभाव के कारण परनिरपेक्ष ही अर्थात् पर की सहायता के बिना ही परिणामलक्षण या क्रियालक्षण अपना कार्य करता है। इतना अवश्य है कि कालप्रत्यासत्तिवश बाह्य निमित्त परद्रव्य के कार्य का व्यवहार से सूचक होता है और इसीलिए उसे निमित्त कहा जाता है।
कथन १४ का समाधान:-इसी अनुच्छेद में "उपादान में होने वाले व्यापार को पृथक सत्ताक बाह्य सामग्री त्रिकाल में नहीं कर सकती है" हमारे इस कथन को समीक्षक ने भी स्वीकार करके लिखा है कि "इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है कि उपादान में होने वाले व्यापार को पृथक-सत्ताक वाह्य सामग्री त्रिकाल में नहीं कर सकती है, यह निविवाद है" इसकी हमें प्रसन्नता है। ऐसा स्वीकार करने के बाद भी वह अपनी यह रट लगाये ही जा रहा है कि "वाह्य सामग्री उपादान में होने वाले कार्य की उत्पत्ति में सहायक भी नहीं हो सकती है, तो यह प्रयुक्त है, क्योंकि उपादान की कार्यरूप परिणति में वह वाह्य सामग्री आवश्यक एवं अनिवार्य रूप से होती है, उसके बिना उपाटन भी पंगु रहता है। दोनों की संघटना से ही कार्य होता है। मो समीक्षक का ऐमा लिखना अनावश्यक तो है ही, इससे आगम की अवहेलमा भी होती है। वस्तुतः जिसे हम वाह्य निमित्त कहते हैं, वह भी बाह्य निमित्तरूप द्रव्य का परनिरपेक्ष एक स्वतंत्र कार्य है, जो उपादानरूप द्रव्य के कार्य से भिन्न स्वय ही हुआ है । अतः इन दोनों कार्यों के एक काल में होने का नियम है, इमीलिए इनमें से एक में प्रयोजनवश निमित्त व्यवहार किया गया है। कोई किसी के बिना पंगु होता ही नहीं है । समीक्षक बाह्य निमित्त के विना उपादान को पंगु मान ले, यह उसकी आगमविरुद्ध इच्छा की वात है । दूसरी बात यह है कि उपादान के कार्य के काल में ही पागम में वाह्य निमित्त को स्वीकार किया गया है । पूरा कमंशास्त्र का उदय प्रकरण प्रांजल उदाहरण है।
कथन १५ का समाधान:-इस अनुच्छेद के अन्तर्गत समीक्षक ने जो यह लिखा है कि -"पूर्वपक्ष उक्त बाह्य सामग्री को उपादान की कार्योत्पत्ति में जो अयथार्थ कारण मानता है,