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परवस्तु में अपनापन देखना और पर के ग्रालम्बन से इष्टानिष्ट बुद्धि करना ही श्रध्यवसान भाव कहलात हैं, जिन्हें जिनागम में छोड़ने योग्य ही कहा है। उसके श्राधार से कार्य-कारण की व्यवस्था करना यह न्याय नहीं है । परमार्थ से जिनदेव वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं । अतः उनके ज्ञान में यह तो आता है अज्ञानी कव कैसे विकल्प करते है । पर आगम उनके वीतराग कथन का सार है, इसलिए उन विकल्पों के आधार से वस्तु व्यवस्था का निर्देश नही किया गया। -यह निश्चत है ।
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में निनित्त कहा गया है अन्य के कार्य करता, फिर भी उसकी सहायता के बिना
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प्रकृत में ऐसा समझना चाहिए कि जिसे श्रागम की उत्पत्ति में वह परमार्थ से अणु मात्र भी सहायता नहीं कार्य हो ही नहीं सकता - ऐसा मानना ही अव्यवसानभाव है। इसी का प्रत्येक वस्तु अपने कार्यकाल में स्वयं निषेध करती है, क्योंकि जितनी जड़-चेतन वस्तुएं हैं, उनका परिणाम परकी अपेक्षा किए विना स्वयं ही होता है । फिर भी भिन्न सत्ताक दो द्रव्यों में जो विशेषरण - विशेष्यभाव, निमित्तनमित्तक, और आधार प्राधेय सम्वन्ध माने गये हैं, वे मात्र असद्भुत व्यवहारनय से ही माने गये हैं । परमार्थ से उनमें कोई सम्बन्ध नहीं । इसीलिये जहाँ भी आगम में ऐसा कहा गया है कि क्रोध नामक चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से जीव में क्रोव की उत्पत्ति होती है, सो वहाँ उसे कालप्रत्यात्तिसवश उपचरितकथन हो जानना चाहिए । अर्थात् उस समय चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से निरपेक्ष होकर क्रोध नामक चारित्र मोहनीय परिणाम स्वयं ही उत्पन्न हुया न तो उक्त कर्म क्रोध की उत्पत्ति में परमार्थ से सहायक हुग्रा और न उक्त कौवभाव ही उक्त कर्म के उदय में परमार्थ से सहायक हुआ। दोनों ने एक-दूसरे की अपेक्षा किये बिना ही अपना-अपना परिगाम किया। फिर भी काल प्रत्यासत्तिवश प्रयोजन विशेष को ध्यान में रखकर यह प्रसद्भुत व्यवहार किया जाता है कि क्रोध कर्म के उदय से क्रोधभाव हुआ ।
पृ० ३७ में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि " किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह उसके प्रभाव में भी हो जाता है । यह तो जैनदर्शन का सिद्धांत है, जिसे उत्तरपक्ष भी अस्वीकार नहीं कर सकता ।" तो इस सम्बन्ध में हमें इतना ही कहना है कि कार्यकाल में हो या कार्यकाल के अभाव में हो, एक वस्तु में दूसरी वस्तु का सर्वथा प्रभाव रहता ही है। भिन्न सत्ताक दो वस्तुनों में प्रत्यन्ताभाव इसी आधार पर माना गया है। इतना अवश्य है कि दो वस्तुनों में जो निमित्त नैमित्तक सम्वन्ध स्वीकार किया गया है, वह काल प्रत्यासत्तिवश प्रसद्भूत व्यवहारनय से ही स्वीकार किया गया है, केवल व्यवहारनय से नहीं, क्योंकि मात्र व्यवहारनय ऐसा कहने से सद्भूतव्यवहानय का भी ग्रहण हो जाता है, जो निमित्त का नैमित्तक के साथ क्या सम्बन्ध है, इसके कथन में प्रयोजनीय नहीं है ।
समीक्षक का मूल प्रश्न था कि "यदि क्रोध यादि विकारी भावों को कर्मोदय के बिना माना जावें तो उपयोग के समान ये भी जीव के स्वभाव हो जावेगे और ऐसा मानने पर इन विकारी भावों का नाश न होने से मोक्ष के प्रभाव का प्रसंग आ जावेगा । "
इसका समाधान हमने यह किया था कि क्रोध आदि विकारी भावों को जीव स्वयं करता है, इसलिए निश्चयनय से वे परनिरपेक्ष ही होते हैं, इसमें संदेह नहीं; कारण कि एक द्रव्य के स्वचतुष्टय में अन्य द्रव्य के स्वचतुष्टय का अत्यन्ताभाव है । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर श्री जयधवला पु० ७ पृ० ११७ में कहा है- " बन्भकारण रिरवेक्खो वत्युपरिणमो ।”