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कर्म की उदय-उदीरणा होती है यह स्वीकार किया गया है, पहले नहीं। इसलिये विचार करने पर यही निश्चित होता है कि जिनागम में प्रेरक नाम का कोई निमित्त नहीं है । मात्र व्यवहार से ऐसा शब्द प्रयोग अवश्य किया जाता है, क्योंकि पागम में भी ऐसा प्रयोग दृष्टिगोचर होता है ।
समीक्षक ने स० पृ० ३६-३७ में जयघवला पृ० ११७ के "वज्झकारणरिणरवेक्को वत्युपरिणामो" इस वचन को माध्यम बनाकर जो यह लिखा है कि पागम मानता है कि सभी कार्यों की उत्पत्ति में उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त ये तीनों कारण अनिवार्य हैं, जैसा कि हम अनेक जगह पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । वस्तुतः परिणाम वस्तु में ही उत्पन्न होगा, वस्तु के अतिरिक्त वह कदापि उत्पन्न नहीं होगा, ऐसा नयकथन किया जाता है सो उससे वक्ता का यही अभिप्राय होता है कि वह उपादान की अपेक्षा कथन कर रहा है, वाहय कारणों (प्रेरक व उदासीन निमित्तों) की सहकारिता का निपेष नहीं करता। कर भी कैसे सकता है अन्यया वस्तु की अनेकान्तात्मकता जो उसका प्राण है, लुप्त हो जायेगी। आदि"
यहाँ समीक्षक कहता है कि आगम मानता है कि सभी कार्यों की उत्पत्ति में उपादान. प्रेरकनिमित्त और उदासीन निमित्त ये तीनों कारण अनिवार्य हैं, सो एक तो प्रेरक नामका कोई निमित्त ही नहीं है, क्योंकि सभी कार्यों की उत्पत्ति अन्य किसी वाह्य कारण की प्रेरणा से होती है यह जिनागम नहीं है, क्योंकि कोई भी कार्य अपने निश्चित उपादान के अनुसार अपने नियत समय को छोड़कर निमित्त के वल पर आगे-पीछे नहीं किया जा सकता । दूसरे उसके ऐसा मानने पर तो उक्त प्रकार का निमित्त ही कार्य करने का अधिकार ग्रहण कर लेगा और उपादान का वही स्थान हो जायेगा जो आगम में निमित्त का माना गया है, वह हेतु नहीं रहेगा । वस्तुतः उसके इस सव कथन पर दृष्टिपात करने से तो ऐसा लगता है कि "वस्तु स्वयं परिणमती है" आगम की इस मान्यता को वह हृदय से मानना ही नहीं चाहता और नाना प्रकार शब्दजाल के प्रपंच रचकर आगम को । ही वदल देना चाहता है।
आगे समीक्षक ने "वज्झकारणनिरवेक्खो वत्थु-परिणामो" इस पर अपनी व्याख्या करते हुए जो यह लिखा है कि "वस्तु से अतिरिक्त वह कदापि उत्पन्न नहीं होगा" ऐसा जब कथन किया जाता है तो उससे वक्ता. का यही अभिप्राय होता है कि वह उपादान की अपेक्षा कथन कर रहा है। वाह्य कारणों (प्रेरक व उदासीन निमित्तों) की सहकारिता का निवेध नहीं करता।
सो यहाँ समीक्षक ने उक्त कथन से यह मान लेता है कि वस्तु से अतिरिक्त जो कारण होते हैं, उनसे यह (कार्य) कदापि उत्पन्न नहीं होता। ऐसी हालत में यह जो आगम में लिखा है कि वस्तुतः परिणामस्वरूप वस्तु ही स्वयं परिणमती है, वह्य कारण नहीं, सो वह ठीक ही लिखा है । दूसरे उक्त वचन "वज्झकारणरियरवेक्खो", पद पाया है सो जयघवला के उक्त वचन से तो यही सिद्ध होता है कि "वाह्यकारण से निरपेक्ष होकर अपने परिणाम को वस्तु स्वयं करती है ।" इसलिये उक्त वचन से समीक्षक जो आशय फलित करना चाहता है, वह कदापि फलित नहीं होता। . - दूसरी बात यह है कि निश्चयनय आत्माश्रित होने से वस्तु के पराश्रितपने का निषेध ही करता है । समयसार में कहा भी है
एवं व्यवहारणम्रो पडिसिद्ध जाण णिच्छयणएण ।।२७२।। इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयनय के द्वारा निपिद्ध जानो । कल्पनारोपित अध्यवसान भावों का नाम ही व्यवहारनय है । अतः निश्चयनय से वे अध्यवसान भाव छाड़ने योग्य ही माने गये हैं ।