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अव देखना यह है कि यहां आचार्य ने यह उत्तर क्यों दिया ? बात यह है कि अनन्तानुबंधी क्रोध आदि चारों के जघन्य प्रदेश सत्कर्म का स्वामित्व एक ही काल में प्राप्त होता है, क्योंकि जो अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ के जघन्य प्रदेश का सत्कर्म का स्वामी होता है, उसके इन चारों कषायों के जघन्य प्रदेश सत्कर्म में तरतमभाव देखा जाता है; इसलिए बाह्य कारण चारों के समान होते हुए भी इन चारों के प्रदेश सत्कर्म के हीनाधिक होने में अन्तर पड़ा है, वह चारों प्रकृतियां अलग-अलग होने के कारण ही अन्तर पड़ा है। इसका अर्थ यह है कि एक काल में अनेक कार्यों का एक वाह्य निमित्त होने पर भी जो कार्यभेद दृष्टिगोचर होता है, उसका कारण निमित्त भेद न होकर भी वस्तुभेद ही जानना चाहिये । यही कारण है कि यहां प्राचार्य को यह उत्तर देने के लिए सन्मुख होना पड़ा है-"बज्झकारणणिरवेक्खो वत्युपरिणामो ।"
उत्तर प्रश्न के अनुरूप
समीक्षक द्रव्यकर्म के उदय को संसारी आत्मा के विकारभाव के होने और चतुर्गतिपरिभ्रमण में भूतार्थरूप से सहायक या कार्यकारी मानता है, किन्तु आगम के अनुसार द्रव्यकर्मोदय संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण में असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त माना गया है। क्योंकि द्रव्यकर्म का उदय द्रव्यकर्म में है, आत्मा में नहीं । इसलिये तो वह (द्रव्यकर्मोदय) आत्मा में असद्भूत है। फिर भी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मोदय से होता है - ऐसा उपचार (व्यवहार) किया जाता है, इसलिये यह कथन उपचरित ही है, भूतार्थ नहीं है। फिर भी समीक्षक इसे भूतार्थ ही मानता है, यह उसका आगमानुकूल मानना नहीं है।
सूक्ष्म विमर्श का फल
आगम में "अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि कार्यकारणभावः" यह वचन पाया है, किन्तु परमार्थ से यह वचन उपादान कारण और उसमें होने वाले कार्य के लिए ही आया है । इसकी पुष्टि परीक्षामुख के इस सूत्र से भी होती है- . .. .. पूर्वोत्तरचारिणोंः कार्य-कारणयोश्च क्रमभावोऽविनाभावः ।
पूर्वचर और उत्तरचर नक्षत्रों में तथा कार्य और कारण में क्रमभाव अविनाभाव होता है।
निमित्त-नैमित्तिक की दृष्टि से आगम में सूत्ररूप में ऐसा कोई वचन नहीं उपलब्ध होता जिससे निमित्त को परमार्थ रूप दिया जा सके । इतना अवश्य है कि लौकिक मान्यता को ध्यान में रखकर जैनधर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध को स्वीकार कर उसकी आगमाविरुद्ध किस प्रकार व्यवस्था बनती है इसका स्पष्टीकरण नयदृष्टि से किया गया है, इसलिये परमार्थ से देखा जावे तो एक द्रव्य अन्य द्रव्य के कार्य में न तो सहायक ही होता है और न ही बाधक होता है । मात्र लौकिक दृष्टि से एक काल प्रत्यासत्तिवश ही उसमें (बाह्यद्रव्यों में) निमित्त या सहायकपने का व्यवहार किया जाता है । ऐसा समझना ही सूक्ष्म विमर्श का फल है, अन्य सब कल्पना मात्र है ।
हमारे वक्तव्यों में कोई विरोध नहीं है । (स० पृ० ३८) (१) हमने क्रोधादि भावों के उदय होने में द्रव्यकर्म निमित्त है, यह असद्भूत व्यवहारनय