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________________ आगम का अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार गहराई से अध्ययन करके अपने-अपने विषय को स्पष्ट करते थे। फलतः उक्त चर्चा का प्रकाशन अभ्यासी एवं प्रात्मार्थी जीवों के लिए एक वरदान स्वरूप ऐतिहासिक महत्वपूर्ण दस्तावेज वन गया है। यह नितान्त सत्य है कि विना उपरोक्त प्रायोजन के इतनी गंभीरता से आगम का अध्ययन होना कभी सम्भव नहीं था। इस चर्चा की विशेष बात यह थी कि उपरोक्त मूर्धन्य विद्वानों की मण्डली में पण्डित फूलचन्द जी के पक्ष को प्रस्तुत करने वाले विद्वानों में मेरे अतिरिक्त एकमात्र पण्डित जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, कटनी ही और थे अर्थात् मात्र हम तीन व्यक्ति ही थे। उपरोक्त चर्चा के तीनों दौर जो कि सन् १९६६ में ही समाप्त हो गए थे और जिस पूरी चर्चा का प्रकाशन बारीक टाइप में छपे हुए २०४३०/८ की साइज में दो भागों में १२२४ पृष्ठों में हुआ था। इस समस्त चर्चा पर पर्दा डालने के लिए श्रीमान् पण्डित बंशीधर जी व्याकरणाचार्य, बीना द्वारा १५ वर्ष के बाद "जयपुर तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा" नामक पुस्तक लिखकर उसका प्रकाशन अपने ही द्वारा सन् १९८१ में करा दिया, जबकि उक्त खानिया चर्चा के तीसरे दौर में लिखने वाले भी स्वयं पं० बंशीधरली व्याकरणाचार्य ही थे। जब यह 'जयपुर तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा' पुस्तक पं० फूलचन्दजी साहब के हाथ में आई तो उनको लगा कि सारी खानिया चर्चा के अमूल्य विषय के सम्बन्ध में भ्रम खड़े करने का यह दुष्प्रयास है, अतः इसका निराकरण होना ही चाहिए। उन्होंने अपने उपरोक्त विचार जब मुझ से कहे तो मैंने उनसे प्राग्रह पूर्वक निवेदन किया कि यह कार्य तो आप ही के द्वारा सम्भव हो सकता है। उनकी वृद्धावस्था के साथ शारीरिक अस्वस्थता होने पर भी यह भागीरथ कार्य करने की इस शर्त के साथ स्वीकृति प्रदान की कि यह पुस्तक तैयार हो जाने पर इसको प्रकाशित करने का कोई आश्वासन देवे तो ही मैं यह कार्य प्रारंभ करूंगा । फलतः मैंने अपने ट्रस्ट के तत्कालीन कार्याध्यक्ष स्व० श्री वावूभाई चुन्नीलाल मेहतर से परामर्श किया। उन्होंने प्रकाशन के लिए उत्साहपूर्वक स्वीकृति प्रदान की । एतदर्थ पण्डितजी साहब के द्वारा यह महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हो सका। . इसके प्रकाशन में भी अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित हुई। पण्डितजी द्वारा हस्तलिखित प्रति से प्रेस कापी तैयार कराने की तथा प्रेस कापी को जांचने की कठिनता ने बहुत समय ले लिया । इसके साथ ही पण्डित जी साहब की अस्वस्थता के कारण तथा प्रेस की गड़बड़ी के कारण भी बहुत समय लग गया। हमें सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि किसी भी प्रकार से यह पुस्तक पण्डितजी साहब की उपस्थिति में ही प्रकाशित हो जावे, क्योंकि पण्डितजी की शारीरिक स्थिति चिन्ताजनक ही चलती रहती है। हमें प्रसन्नता है कि हमारा यह प्रयास सफल हुआ और यह प्रकाशन आज पण्डितजी साहब की उपस्थिति में ही प्रकाशित होकर प्रात्मार्थी वन्धुप्रों के अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। इस पुस्तक के प्रकाशन में साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग के प्रवन्धक श्री अखिल वंसल एम ए., जे.डी. का श्रम तो सराहनीय है ही साथ ही भ्रूफ रीडिंग की व्यवस्था में पं० श्री शांति कुमार पाटिल जैनदर्शनाचार्य शास्त्री ने भी बहुत परिश्रम किया है, अतः दोनों वधाई के पात्र हैं। . अन्तमें प्रिन्ट'मोलण्ड प्रेस के मालिक एवं अन्य जिन महानुभावों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें इस कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ है उन सभी को धन्यवाद देता हूँ। दीपावली, २२ अक्टूबर, १९८७ नेमीचन्द पाटनी महामंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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