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________________ iv ] उन्होंने अपनी पुरानी प्रतिष्ठा को छोड़कर दिगम्बर परम्परा स्वीकार की और इस परम्परा में आने के बाद अपने को प्रवती श्रावक घोषित किया । एकमात्र उनकी यह घोपणा ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वे मोक्षमार्ग के अनुरूप सम्यक् व्यवहार को जीवन में भीतर से स्वीकार करते हैं। यदि वे एकान्त के पक्षपाती होते तो कह सकते थे कि मैं पर्यायप्टि से भी न गृहस्थ हूँ न मुनि हूँ, मैं तो एक ज्ञायक स्वरूप प्रात्मा हूँ। वे जिस स्थिति में हैं उसे भीतर से स्वीकार तो करते ही हैं और यह जीव अन्तरात्मा बनकर परमात्मा कैसे बनता है, इस मार्ग का भी दर्शन कराते हैं। वास्तव में देखा जाय तो जो भी ज्ञानी मोक्षमार्ग का उपदेश देता है, वह दूसरे के लिये नहीं देता है। उसके अन्तरात्मा की पुकार क्या है उसे ही वह अपने को सुनाता है । दूसरे भव्य प्राणी उसे सुनकर अपना प्रात्महित का कार्य साध लें यह दूसरी बात है । इससे स्पष्ट विदित होता है कि वे अनेकान्त के प्राशय को समझते हैं और जीवन में उसे स्वीकार करते हैं। उनके विषय में एक प्राक्षेप यह भी है कि वे पुण्य का निषेध करते हैं, पर हमें उन पर किया गया यह आक्षेप भी उपहासास्पद प्रतीत होता है । वस्तुतः वे पुण्य फा निषेध नहीं करते, किन्तु मुझे पुण्य का अर्जन करना है इस भाव का निषेध अवश्य करते हैं । उनका कहना है कि इस संसारी प्राणी को अर्जन करने योग्य यदि कोई वस्तु है तो वह प्रात्मनिधि ही है। किन्तु जब उसके अर्जन के उपायों का विचार करते हैं, उसकी कथा करते हैं, उसके अनुकूल क्रिया करते हैं तो पुण्य का अर्जन स्वयमेव हो जाता है । देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति पूजा का तथा प्रणयत-महायत के धारण का उपदेश शास्त्रों में पुण्य के अर्जन की दृष्टि से नहीं दिया गया है, किन्तु ये सब क्रियाएं निश्चय मोक्षमार्ग के परिकर्मस्वरूप है, मात्र इसलिए इनका शास्त्रों में उपदेश दिया गया है। वे अपनी भागमानुपूल वाणी द्वारा इंसी तथ्य का स्पष्टीकरण करते हैं । एक प्राक्षेप यह भी किया जाता है कि वे कार्य-कारण परम्परा मे वाघ निमित्त को नहीं स्वीकार करते, किन्तु इसके स्थान में स्थिति यह है कि वे भेदविज्ञान को जीवन का प्रधान अंग बनाने की दृष्टि से कार्य-कारण परम्परा के निश्चय कार्य-कारण परम्परा और व्यवहार (उपचरित) कार्यकारण ऐसे दो भेद करके निश्चय कार्य-कारण परम्परा ही पथार्थ कार्य-कारण परम्परा है, ऐसी घोषणा अवश्य करते हैं। साथ ही वे व्यवहार कार्य-कारण परम्परा का निषेध तो नहीं करते, परन्तु उसे विकल्पमूलक बतलाकर मोक्षमार्ग में यह प्राथय करने योग्य नहीं है यह भी कहते हैं। वे अपने प्रवचनों में यह सर्वदा कहते रहते हैं कि प्रत्येक कार्य पांच के समवाय में होता है। उनके इस कथन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे प्रत्येक कार्य के प्रति अन्वय-व्यतिरेक के माधार पर वाह्य सामग्री में निमित्तता (व्यवहारहेतुता) को स्वीकार अवश्य करते हैं, किन्तु यह व्यवहारहेतुता परमार्थस्वरूप नहीं है ऐसा यदि वे कहते हैं और इसे कोई उनके द्वारा बाह्य निमित्त की प्रस्वीकृति मानता है तो उसका इलाज नहीं। इतना अवश्य है कि जीवन में मोक्षमार्ग की सम्प्राप्ति स्वाश्रित उपयोग के बल से ही होती है, इसलिए वे सर्वप्रकार के पराश्रितपने का निषेध कर स्वाश्रितपने का ज्ञान अवश्य कराते रहते हैं।" उपरोक्त शंकाओं के निवारणार्थ ही उक्त खानिया चर्चा का प्रायोजन हुआ था और उक्त चर्चा में भाग लेने के लिए समाज के लगभग सभी मूर्धन्य उच्चकोटि के विद्वान उपस्थित थे और
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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