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जैसा सम्मेलन के नियम से ज्ञात होगा, यह निश्चय हुआ था कि शंका-समाधान पद्धति से . लिखित रूप में पूरी चर्चा के तीन दौर रखे जायें । तदनुसार दो दोर तो श्री १०८ प्राचार्य महाराज के सानिध्य में ही सम्पन्न हो गए थे। दोनों ओर से तीसरा दौर वहां सम्पन्न न हो सका । श्रतएव उसकी व्यवस्था परोक्ष रूप में करने की योजना स्वीकार की गई । प्रसन्नता है कि पिछले वर्ष के जून माह में तीसरा दौर भी सम्पन्न हो गया है ।
शंका-समाधान पद्धति से लिखित रूप में इस तत्त्वचर्चा का वडा ऐतिहासिक महत्व है। वस्तुतः देखा जाए तो यह तत्त्वचर्चा स्वयं अपने में एक जीवित इतिहास बन गया है।
वर्तमान विद्वानों में आपस में मतभेद का मूल कारण क्या है इस तथ्य को समझने के लिए भी यह तत्वचर्चा बड़ी उपयोगी है। शंका-समाधान के प्रसंग से यत्र-तत्र बीच-बीच में दोनों भोर से जो विचार व्यक्त किये गए हैं, उनसे आपसी मतभेद के मूल कारण पर सम्यक् प्रकाश पड़ता है । मैंने स्वयं तत्त्वचर्चा में सक्रिय भाग लिया है, इसलिए मैं इस विषय मे तत्काल इससे और अधिक लिखना बांछनीय नहीं मानता । अस्तु ।"
'उपरोक्त खानिया चर्चा के प्रायोजन का मूल कारण तो एक मात्र पूज्य श्री कानजी स्वामी के द्वारा यथार्थ मोक्षमार्ग अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग की प्ररूपणा, जो एक लम्बे काल से लुप्त प्राय सी हो रही थी उसको दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करने से अपनी पूर्व मान्यताओं को ही सच्चा मोक्षमार्ग मान लेने के मिथ्या हठ से उत्पन्न अनेक भ्रान्तियां थीं, जिनका दिग्दर्शन श्री पण्डित जी साहब ने उपरोक्त पुस्तक के सम्पादकीय में निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है
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"ऐसी अध्यात्म विद्या प्रवरण वीतराग वाणी परमागम का प्रधान श्रंग अनादिकाल से बनी
चली ना रही है । हमारा परम सौभाग्य है कि वह वारणी इस काल में पुनः मुखरित हुई है। सोनगढ़ के अध्यात्म संत कानजी स्वामी तो उसके मुखरित होने में निमित्त मात्र हैं । वह उनकी वाणी नहीं हैं, वीतराग वाणी है, शुद्धात्मा की अपनी पुकार है । कुछ भाइयों का कहना है कि कानजी स्वामी एकान्त की प्ररूपणा करते हैं, वे व्यवहार को उड़ाते हैं; जवकि वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । निश्चय धर्मं प्रात्मधर्म है, क्योंकि वह परमात्म स्वरूप है। ऐसी प्ररूपणा करते समय यदि यह कहा जाय कि यदि ऐसे श्रात्मधर्म को व्यवहार धर्म स्पर्श नहीं करता है, वह उससे सर्वथा भिन्न है तो ऐसी कथनी को व्यवहार धर्म का उड़ाना कैसे मान लिया जाय अर्थात् नहीं माना जा सकता है । हां यदि वे यह कहने लगें कि व्यवहार से देव-गुरु-शास्त्र की पूजा-भक्ति करना, स्वध्याय करना, जिनवाणी का सुनना-सुनाना, श्ररणव्रत- महाव्रत का पालना इन सब क्रियाओंों के करने की कोई आवश्यकता नहीं है, मोक्षमार्गी के ये होती भी नहीं है, तब तो माना जाय कि वे व्यवहार को उड़ाते हैं ।
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट से प्रकाशित प्रतिक्रमण पाठ को हमने देखा है । उसमें यह भी निर्देश किया गया है कि जिसने जीवन पर्यन्त के लिये मद्य-मांस आदि का त्याग नहीं किया है, वह नाममात्र भी जैनी नहीं है । क्या यह व्यवहार की प्ररूपण नहीं है। क्या इससे हम यह नहीं समझ सकते कि वे व्यवहार को उड़ाना नहीं चाहते, बल्कि उसे प्रारणवान बनाने में ही लगे हुए हैं । प्राणवान व्यवहार ही मोक्षमार्ग का सच्चा व्यवहार है, कथनी और करनी पर बारीकी से ध्यान दिया जाय तो उससे यही सिद्ध होता है ।
ऐसी परमागम की श्राज्ञा है । उनकी पूरी