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________________ २६ परमार्थ से अन्य द्रव्य के कार्य की निमित्तता ( कारणता ) नहीं ही पायी जाती है । मात्र काल प्रत्यासत्ति या बाह्य व्याप्ति को ध्यान में रखकर विवक्षित कार्य की अपेक्षा उस कालद्रव्य में निमित्तता का व्यवहार श्रागम में किया गया है, जो अभूतार्थं होने से उपचरित ही माना गया है । (ग) इस प्रकार यहां तक पृष्ठ 8 में लिखित (क) और (ख) मुद्दों को ध्यान में रखकर ऊहापोह किया । आगे (ग) मुद्दे के आधार से विचार किया जाता है । उसमें जो उपचार को कथचित अभूतार्थ और कथंचित भूतार्थं कहा गया है, वह कैसे ठीक है इसकी मीमांसा की जाती है आगम में व्यवहारनय के दो भेद किये गये हैं । एक सद्भूत व्यवहारनय और दूसरा असद्भूत व्यवहारनय | सद्भूत व्यवहार का दूसरा नाम भेदव्यवहार भी है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ग्रभेद स्वरूप ही है, परन्तु प्रयोजन को ध्यान में रखकर गुरण-गुणी श्रौर: पर्याय- पर्यायवान् में भेद करना- सद्भूत व्यवहार है । इसके दो भेद हैं- शुद्ध सद्भूत व्यवहार और अशुद्ध असद्भूत व्यवहार । यहाँ इनके कथन का विशेष प्रयोजन नही है । अद्भूत व्यवहार का दूसरा नाम उपचार है जैसाकि आलाप पद्धति में कहा हैप्रसद्भूत व्यवहार एवोपचारः । असद्भूत व्यवहार किसे कहते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए श्रालाप पद्धति में पुनः कहा है अन्यत्र प्रसिद्धस्य धमस्य अन्यत्र समारोपणादसद्भूत व्यवहारः । अन्य वस्तु में प्रसिद्ध हुए धर्म का उससे अन्य वस्तु में समारोप करना ग्रसद्भूत व्यवहार है । इसके ε भेद हैं द्रव्ये द्रव्योपचारः द्रव्ये गुणोपचारः, द्रव्ये पर्यायोपचारः, गुणे द्रव्योपचारः, गुणे गुणोपचारः, गुरणे पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः, पर्याये गुरणोपचारः पर्याये पर्यायोपचारः । अन्य द्रव्य में अन्य द्रव्य का समारोप करना यह द्रव्य कहना यह द्रव्यमें गुरण का उपचार है । द्रव्य को पर्याय कहना यह गुरण को द्रव्य कहना यह गुण में द्रव्य का उपचार है । अन्य गुरणको अन्य गुण कहना यह गुण में गुरण का उपचार है, गुण को पर्याय कहना यह गुरण में पर्याय का उपचार है । पर्याय को द्रव्य कहना यह पर्याय में द्रव्य का उपचार है । पर्याय को गुरण कहना यह पर्याय में गुण का उपचार है । अन्य की पर्याय को अन्य की पर्याय कहना यह पर्याय में पर्याय का उपचार है । में द्रव्योपचार है । द्रव्यको गुण द्रव्य में पर्याय का उपचार है । पर्याय में पर्याय के उपचार का उदारहण तह जीवे कम्मारणं गोकम्मारणं च पस्सिदुं वण्णं । जीवस्स एस वगो जिरोहि ववहारदो उत्तो ॥ ५६ ॥ ( समयसार ) इसी प्रकार जीव में कर्मो का और नोकर्मो का वर्ण देखकर जीव का यह वर्ण है, इस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने व्यवहार से कहा है ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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