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________________ जीवपुद्गलानां बहिरंगनिमित्तभूतद्रव्यकाल सद्भावे सति संभूतत्त्वात् द्रव्यकालसंभूतः इत्याभिधीयते । . जीव पुद्गलों का परिणाम तो बहिरंग निमित्तभूत द्रव्यकाल के सद्भाव में होता है, इसलिए द्रव्यकाल से उत्पन्न हुआ कहा जाता है। . . . इसी बात को और भी स्पष्ट करते हुए आ० जयसेन अपनी तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में लिखते हैं- .. परिणाम दववकालसंभूदो-अणोरण्यंतरव्यक्तिकमणप्रभूति - पूर्वोक्तपुद्गल परिरणामस्तु शोतकाले पाठकस्याग्निवत् कुम्भकारचक्कभ्रमरण-विषये-अधस्तनशिलावद्वहिरंगसहकारीकारणभूतन कालाणुरूपद्रव्यकालेनोत्पन्नत्वाद् द्रव्यकालसंभूत । - परिणाम द्रव्यकाल के निमित्त से उत्पन्न हुआ है अर्थात् जैसे शीतकाल में पाठक के लिए अग्नि निमित्त है तथा कुम्भकार के चक्र में भ्रमण के विषय में नीचे की शिला बहिरंग निमित्त है, उसी प्रकार एक अरण के दूसरे प्रण के उल्लंघन आदि पूर्वोक्त पुद्गल परिणाम बहिरंग सहकारी कारण कालाणुरूप द्रव्यकालसे उत्पन्न होने के कारण द्रव्यकाल से उत्पन्न हुआ है - ऐसा व्यवहार होता है । ये दो प्रमाण हैं - इनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैसे धर्मादिक द्रव्य जीव और पुद्गलो के गमन आदि में निमित्त होते हैं उसी प्रकार कालं द्रव्य भी सभी द्रव्योंके परिणमन में निमित्त होता है। इस विषय में मीमांसक का यह कहना कि काल द्रव्य समय, पावलि आदि के विभाजन में ही निमित्त है, युक्तियुक्तं प्रतीत नहीं होता । आशा है कि मीमांसक इन दो प्रमाणों के प्रकाश में अपने विचारों को बदल लेगा। " .. पृष्ठ ३४६ (वरैया) में मीमांसक का यह लिखना कि. उपादान हमेशा द्रव्य ही हुआ करता है, वह. पर्याय विशिष्ट ही है आदि यह दूसरी बात है, युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ऋजुसूत्रनय से अव्यवहित पूर्व पर्याय उत्तर पर्याय का उपादान होता है और प्रमाण से अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य अव्यवहित उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य का उपादान होता है । जैसा कि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ के इस प्रमाण से ज्ञात होता है पुश्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्ज हवे रिणयमा ॥२०३॥ पूर्व पर्याय से युक्त द्रव्य कारणरूप से रहता है और उत्तर पर्याय से युक्त वही द्रव्य नियम से कार्य होता है। __ इस प्रकार आगम की साक्षी पूर्वक विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मीमांसक ने 'जनतत्त्व मीमांसा की मीमांसा' को निमित्त कर जो अनर्गल बातें लिखी हैं वे किस प्रकार आगम सम्मत नहीं हैं इस बात का यहां तक विशेषरूप से विचार किया साथ, ही उक्त कथन से मीमांसक के इस विचार का भी खण्डन हो जाता है कि "वाह्य निमित्त कारण अन्यद्रव्य के कार्य में महायक होकर भूतार्थ है", क्योंकि यहां जिस काल पदार्य को निमित्त कहा गया है उसमें भूतार्य रूप से अर्थात्
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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