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समझ लेना चाहिए कि जितना भी कथन किया जाता है वह सब सप्रयोजन ही किया जाता है । अन्यथा वह नयाभास हो जाता है, इसलिये यदि उपचरित कथन से अनुपचरित अर्थ की सिद्धि होती है तो उसे (उपचरित कथन को, मीमांसकके मतानुसार भूतार्थ कैसे माना जा सकता है मीमासक को जो उपचरित कथनको भूतार्थ मानने का आग्रह है, सो उसे उसका ही त्याग करना है, अन्य कुछ नहीं ।
श्रागे पृष्ठ ३३३ (बरैया) मीमांसक ने कुम्भकार में जो मिट्टी के समान कुम्भनिर्माण का कर्तव्य स्वीकार किया है सो उसके इस कथन को जिनागम का अपलाप करने के सिवाय और क्या कहा जा सकता है । जिसने समयासार के कर्ताकर्म अधिकार को पढ़ा है वह यह अच्छी तरह से जानता है कि कुम्भकार में मिट्टी के कुम्भनिर्माण का कर्तृत्व त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है । परमार्थ से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं होता यह उतना ही सत्य है, जितना कि यह कहना कि यह जीव अपने अज्ञान के कारण संसारी बना हुआ है । यह मानना सत्य है क्योंकि अपने अज्ञान के कारण ही जीव संसारी बना हुआ है । हाँ यदि कुम्भकार का योग और विकल्प घट निर्माण में निमित्त हैं, इस अपेक्षा से उसे उपचार से निमित्त कर्ता कहा जाता है तो उससे यह कभी भी सिद्ध नहीं होता कि कुम्भकार ने मिट्टी के परिणमन की क्रिया करके योग और विकल्प की क्रिया करने के साथ मिट्टी में कुम्भ निर्माण की भी क्रिया की है । वस्तुतः कुम्भकार ने मिट्टी के परिणमन की क्रिया न करके कुम्भ उत्पत्ति के व्यवहार से अनुकूल योग और विकल्प ही किया तथा मिट्टी ने स्वयं परिणमन करके घट की उत्पत्ति की क्रिया की है । देखो, समयसार गाथा ८४ की ग्रात्मख्याति टीका ।
आगे पृ० ३५३ में मीमांसक का कहना है कि पं० फूलचन्द जी की मान्यता सभी कार्यों में स्वभाव आदि के समवाय को कारण मानने की है, परन्तु मीमांसक के मतानुसार प्रत्येक द्रव्य के षड्गुणी हानि वृद्धि रूप परिणमन में निमित्तों की कारणता नहीं प्राप्त होती तो इसका ऐसा लिखना इसलिए स्ववचन बाधित है, क्योंकि एक चोर पड़गुणी हानि - वृद्धि रूप उस कार्य को स्वप्रत्यय के साथ पर प्रत्यय भी स्वीकार किया जाय और दूसरी ओर उस ( कार्य ) में निमित्तों की कारणता अस्वीकार की जाय उसका यह लिखना कहाँ तक तर्क संगत है इसका उसे स्वयं ही विचार करना है ।
आगे पृष्ठ ३५४ (वरैया) में वह स्वभाव (शुद्ध) पर्याय के मूक और दूसरी ओर काल निमित्तक भी लिखता है । साथ ही उसका यह भी भी वस्तु के परिणमन में निमित्त नहीं होता । और इसके साथ ही वह यह द्रव्य उस परिणमन का समय आवली आदि के रूप में विभाजन प्रत्यय परिणमन में काल के अन्वय व्यतिरेक के घटित होने की कभी सम्भावना नहीं है ।
और पर निरपेक्ष मानता है लिखना है कि काल किसी भी लिखता है कि काल मात्र करता रहता है । परन्तु स्व
इस प्रकार मीमांसक के पूर्वोक्त मत को पढकर लगता है कि उसे कार्यकारण भाव की जरा भी खबर नहीं है । एक ओर काल द्रव्य को अन्य द्रव्य के परिणमन में निमित्त मानना और दूसरी और उसका निपेध करना इसे कार्य कारण भाव की अनिभिज्ञता ही कहा जा सकता है ।
आगम में धर्माधिक द्रव्यों को उदासीन कारण के रूप में स्वीकार किया गया है काल द्रव्य भी जीवादि द्रव्यों के परिणाम का वहिरंग निमित्त है । जैसाकि पंचास्तिकाय गाथा १०० की समय व्याख्या. टीका में प्रा० अमृतचन्द्र लिखते हैं