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यह एक उदाहरण है । इसमें व्यवहार का अर्थ प्रसद्भूत व्यवहार लिया है। जीव में कर्म और नोकर्म का वर्णन नहीं पाया जाता, इसलिए तो वह उसमें प्रसद्भूत हैं । तथा कर्म और नोकर्म के वर को जीव का कहा गया, इसलिए वह व्यवहार है। इस प्रकार यह प्रसद्भूत व्यवहार का उदाहरण है, जो प्रयोजन विशेष से श्रागम में स्वीकार किया गया ।
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इस प्रकार उक्त ग्रागम के कथन से यह मुख्यतासे कथन करता है । अतः उसे मीमांसक के कहना ग्रागम विरुद्ध होने के कारण मान्य नहीं है ।
स्पष्ट हो जाता है कि उपचार असद्भूत अर्थका द्वारा कथंचित् प्रसद्भुत और कथंचित् सद्भूत
(घ) श्रागे समीक्षकने जो उपचार को ही व्यवहार कहकर कथंचित् भूतार्थ और कथंचित् भूतार्थ स्वीकार किया है, सो प्राकृत में जिस अर्थ में वह व्यवहार शब्द का प्रयोग कर रहा है वह यवहार भी प्रसद्भूत ही है, क्योंकि वह अन्य का अन्य में उपचार स्वरूप होने से प्रभूतार्थ ही है । उसे सद्भूत भेद व्यवहार नहीं माना जा सकता । इस प्रकार प्रश्नोत्तर की सामान्य समीक्षा नाम पर समीक्षक ने जो अपना कल्पित श्रभिमत व्यक्त किया है उसका विचार किया अन्तरमहदन्तरम् । श्रागे मतैक्य के नाम पर समीक्षक ने पृष्ठ ४ में जो चार मुद्दे उपस्थित किये हैं, उनमें मौलिक अन्तर क्या है उसे यहाँ स्पष्ट किया जाता है यथा
संख्या (१) के अन्तर्गत समीक्षक का कहना है, कि दोनों ही पक्ष संसारी ग्रात्मा के विकार भाव और चतुर्गतिं भ्रमण में द्रव्यकर्म को निमित्त कारण और संसारी श्रात्मा को उपादान कारण मानते हैं । सो उसका कहना वाह्य दृष्टि से भले ही ठीक प्रतीत हो । पर उसने ऐसा लिखकर भी जो यह लिखा है कि "अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्तद्रव्य उपादान होकर भी वह उनके योग्यतावाला होता है, इसलिए जब जैसा निमित्त होता है, उसके अनुसार कार्य होना है उपादान के अनुसार नहीं" इसलिए उसके मतानुसार ऐसा लगता है कि उपांदान में कार्य हुआ इतना ही वह उपादान का अर्थ करता है । उसके मतानुसार कार्य तो मात्र निमित्त के अनुसार ही होता है । इस प्रकार हम देखते हैं संख्या ( १ ) के अन्तर्गत जो समीक्षक ने लिखा है वह यथार्थ नहीं है ।
(२) इस संख्या के अन्तर्गत समीक्षक ने जो कुछ भी लिखा है उसे संख्या १ के सन्दर्भ में देखने पर स्थिति स्पष्ट हो जाती है । समीक्षक वस्तुतः अपनी बात को छिपा रहा है । आगम से समीक्षक के दृष्टिकोरण में जो महान् अन्तर है उसे हम संख्या १ में स्पष्ट कर ही आये हैं । (३) इस संख्या में समीक्षक ने दोनों पक्षों के अभिप्राय से जो उपादान कारण रूप संसारी आत्मा को यथार्थ कारण और मुख्य कर्ता लिखा है तथा निमित्तकारणभूत उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्य कर्म को अयथार्थ कारण और उपचारित कर्ता लिखा है सो वस्तु स्थिति तो ऐसी ही है, परन्तु जब वह उपादान कारण को अन्य योग्यता वाला मानकर निमित्त के अनुसार कार्य के होने का विधान करता है, तब उसका पूर्वोक्त मत अपने आप खण्डित हो जाता है, क्योंकि उसके श्रागम विरुद्ध इस मत के अनुसार उपादान कारण मात्र आश्रय कारण रह जाता है और निमित्त कारण यथार्थ कारण मुख्य कर्ता बन जाता है । यदि वह कहे कि निमित्त के अनुसार कार्य होता है यह हम व्यवहार से कहते हैं तो भी उसका ऐसा लिखना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था में निश्चय उपादान को