________________
धर्म-धर्म्यविनामाव:. सिध्यत्यन्योन्यतीक्षया ।
न हि स्वल्पं स्वतो होतत कारक-ज्ञायकांगवत् ॥ धर्म और धर्मी में अविनाभाव सम्बन्ध है यह बात परस्पर (एक दूसरे) के अच्छी तरह देखने से ज्ञात होती है, किन्तु उनका स्वरूप नहीं, वह नियम से स्वयं ही कारकांग कर्ता-कर्म के समान्त और ज्ञापकांग ज्ञेय-ज्ञायक के समान है।
इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी टीका अष्टसहस्री में जो कहा है वह इस प्रकार है-(यहां प्रयोजन के अनुसार विवक्षित टीका का ही हिन्दी अनुवाद लिया है।)
धर्म और धर्मी में अविनाभाव सम्बन्ध है यह परस्पर की अपेक्षा से सिद्ध होता है, किन्तु उनका स्वरूप परस्पर की अपेक्षा से सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वह विवक्षा के पहले हो स्वत: सिद्ध है । इन दोनों का स्वरूप सामान्य और विशेष के समान स्वतः सिद्ध स्वरूप वाला है, क्योंकि भेद की अपेक्षा रखने वाले अन्वयरूप ज्ञान से वह जाना जाता है तथा जैसे विशेप स्वतः सिद्ध स्वरूप वाला है क्योंकि, सामान्य की अपेक्षा रखने वाले व्यतिरेकरूप ज्ञान से वह जाना जाता है। उसी प्रकार गुरण
और गुणी आदि रूप धर्म और धर्मी को भी कर्ता-कर्म के समान तथा वोध्य बोधक के समान . जानना चाहिये । कारकांग कर्ता-कर्म हैं और ज्ञापकांग वोध्य-बोधक हैं।
यहां जैसे कर्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा से नहीं है तथा कर्म का स्वरूप कर्ता की अपेक्षा से नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर दोनों का प्रभाव प्राप्त होता है, परन्तु यह इस कार्य का कर्ता है और यह इस (कर्ता) का कार्य है ऐसा व्यवहार परस्पर की अपेक्षा के विना नहीं होता। इससे बोध्य-बोधक का अर्थात् प्रमाणप्रमेय का स्वरूप स्वतः सिद्ध है । परन्तु इनका व्यवहार परस्पर की अपेक्षा से सिद्ध होता है। इसलिए उनके समान इन धर्मी और धर्मरूप समस्त पदार्थों की 'कथंचित् प्रापेक्षिकी सिद्ध है, क्योंकि वैसा व्यवहार होता है; कथंचिद अनापेक्षिकी सिद्धि है, क्योंकि वे विवक्षा के पहले ही.सिद्ध हैं।
.. यहां प्रयोजन के अनुसार ये दो ही भंग कहे हैं । प्रकृत में हमें इस आधार पर इतना ही जानना है कि निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध भी इसी न्याय से जानने योग्य है। यथा यह इस कार्य का असद्भूत व्यवहारनय से निमित्त है । इसका अर्थ है कि जैसे उपादान स्वरूप से निमित्त है वैसे यह स्वरूप से निमित्त नहीं है । प्रयोजन (त्रिकाल बाह्यव्याप्ति) के अनुसार उसे निमित्त कहा जाता है । अतएव बाह्यनिमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धवश यह कहा जाता है कि उनके विषय में (1) कथंचित् प्रापेक्षिकी सिद्धि है, क्योंकि इस प्रकार का उनमें असद्भूत व्यवहार होता है, (2) कथंचित् वाह्य निमित्त . की अपेक्षा किये विना सिद्ध है, क्योंकि कार्य की बाह्य निमित्त की अपेक्षा किये जाने से पूर्व ही कार्य की सिद्धि है । तात्पर्य यह है कि बाह्य निमित्त की विवक्षा के पूर्व ही कार्य स्वरूप से सिद्ध है, इस लिए वाह्य निमित्त उपचार से ही उसका कारण कहा जाता है । यहां सर्वत्र उपचार का अर्थ ही यह है कि "जो जिसका न हो उसको उसका कहना या इस प्रकार का विकल्प करना" स्पष्ट है कि बाह्य निमित्त कार्यरूप धर्मी का वास्तविक धर्म तो नहीं है, फिर भी बाह्य व्याप्ति वश उससे कार्य की सिद्धि होती है, इसलिये जिनागम में उसे स्थान मिला हुआ है । बाह्य निमित्त को व्याकरणाचार्य स्वयं