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अयथार्थ कारण मानते हैं । (स. पृ. 4) फिर भी उसकी सहायता को भूतार्थ कहते हैं (स. पृ. 5) यही आश्चर्य है । यदि वह अयथार्थ कारण है तो उसकी सहायता कार्यकारी - भूतार्थ कैसे हो सकती है, अयथार्थ ही रहेगी। वैसे देखा जाय तो प्रयोजन के अनुसार उसे अन्य के कार्य का निमित्त स्वीकार किया है, इसीलिए उसे उपचरित कारण कहेंगे, अयथार्थ कारण नहीं। इसी प्रकार उसकी सहायता उपचरित ही कहेंगे भूतार्थ नहीं।
यहाँ हमारी दृष्टि से एक आश्चर्य तो यह है कि व्याकरणाचार्य जी जहां वाह्य निमित्त को अयथार्थ कारण कहकर उसकी सहायता को कार्यकारी - भूतार्थ मानते हैं । वहाँ हम बाह्य निमित्त को उपचार से कारण और उसकी सहायता को उपचार से सहायक मानते हैं, क्योंकि उपचार का व्यवहार ऐसी जगह नहीं होता जिसे किसी अपेक्षा से विवक्षित वस्तु की या कार्य की सिद्धि में निमित्त न माना हो । निमित्त कहो या सहायक या उपकारक कहो, इन तीनों का अर्थ प्रकृत में एक ही है । हमने कहीं भी बाह्य निमित्त को सर्वथा अकिंचित्कर नहीं लिखा है । उपचरित हेतु का उपचार से कारण या सहायक या उपचरितकर्ता अवश्य लिखा होगा । इसका अर्थ है कि जिसमें उपचार किया जाता है,उसे प्रयोजन के अनुसार स्वीकार अवश्य किया जाता है, पर वह मुख्य स्थान ग्रहण करने में सर्वथा असमर्थ रहता है।
___ व्याकरणाचार्यजी किसी कार्य का निमित्त होकर वह कार्य के होने में सहायता करता है और सहायता करने को भूतार्थ मानते हैं, इसे वे ही जानें कि निमित्त की सहायता क्या है ? वह बाह्य निमित्तगत है या कार्यगत ? .
. समीक्षा पृ. 14 में व्याकरणाचार्यजी प्रेरक वाह्य निमित्तों की कार्यकारिता को बतलाते हुये लिखते हैं कि "यह भी ध्यातव्य है कि: उपादान उसे कहते हैं जिसमें कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विद्यमान हो । इसलिये ऐसा नहीं समझना चाहिए कि प्रेरक निमित्त उपादान की उस योग्यता को उत्पन्न करता है, प्रेरक निमित्तों का कार्य ही उस योग्याता को कार्यरूप से विकसित होने के लिए प्रेरणा मात्र करना है।" ...
यहां पहले तो यह देखना है कि व्याकरणाचार्यजी जिस उपादान को "स्वभावत: योग्यता"कहते हैं, वह द्रव्यरूप होती है कि पर्यायरूप । यदि उसे द्रव्यरूप माना जाता है तो द्रव्याथिकनय का विषय द्रव्य तो अनादि-अनन्त, अपरिणामी होता है । उसे विकसित करने के लिए उपादान को प्रेरणा देने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वह पर्यायरूप है तो वह अव्यवहित पूर्व पर्याय ही हो सकती है, अतः वह अगले समय में कार्यरूप ही परिणमन करेगी, क्योंकि कार्य का उत्पाद ही पूर्व पर्याय का क्षय है। जैसा कि कहा भी है - "कार्योत्पादः क्षयः" ऐसी अवस्था में प्रेरक निमित्तों का क्या उपयोग रहा यह सिद्धान्ताचार्य व्याकरणाचार्य जी ही जाने। .
वस्तुतः देखा जाय तो सम्यक् उपादान बाह्य निमित्तों की सहायता के विना ही अपना कार्य करता है। इसलिये व्याकरणाचार्य जी ने प्रेरक निमित्त को उपादान की उस योग्यता को कार्यरूप से विकसित होने के लिये.प्रेरणा मात्र करता है यह जो कहा है, सो उनके उस कथन से एक तो जनदर्शन में पर्यायान्तर से ईश्वरवाद के प्रवेश कराने के समान है। दूसरे उनके द्वारा माने गये प्रेरक निमित्तों की उक्त कथन से अयथार्थता ही सिद्ध होती है । यदि बाह्य निमित्त निमित्तपने की अपेक्षा वास्तविक हों तो उसकी सहायता भी वास्तविक मानी जाय। जबकि निमित्त वास्तविक तो नहीं है, बाह्य उपचार व्याप्तिवश से निमित्त है, इसलिये उसकी सहायता को भी उपचरित ही.जानना चाहिये । इसका अर्थ है कि वाह्य निमित्त में सहायता का आरोप किया गया है, वाह्य निमित्त सहायता करता नहीं ।