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________________ कर लिया जाय । पागम के अनेक वचनों से भी इसी तथ्य का समर्थन होता है। यदि नित्य द्रच्य को उपादान स्वीकार किया जाता है वह नित्य होने से सदा ही एकान्त से अपरिणामी बना रहेगा, वह स्वयं कार्यरूप कैसे परिणमेगा और व्याकरणाचार्य जी के.मत से उपादान तो नित्य हो और उससे होने वाली पर्याय अनित्य हो यह कैसे बन सकता है ? शायद अपने इस मत के समर्थन में ही उन्होंने उपादान को मुख्यता से आश्रय रूप कारण माना है । जबकि उपादान भी पट्कारकरूप होता है - जो ग्रहण करे, जिसको ग्रहण करे, जिसके लिए ग्रहण करे अन्य विवक्षित पर्याय से भिन्न को ग्रहण करे, जिसमें ग्रहण करे । यह विवक्षा की बात है कि हम किस कारक की मुख्यता से कथन कर रहे हैं, परन्तु. उसे. सर्वथा मान लेने का ही निषेध हैं । इसके लिए प्रवचनसार की 16वीं गाथा की टीका पर दृष्टिपात कर सकते हैं। यहाँ क्रमभावी नियम अविनाभाव उपादान और उपादेय भाव में ही बन सकता है, निमित्त'नैमित्तिकभाव में नहीं, क्योंकि परीक्षामुखसूत्र में उपादान-उपादेय भाव का कथन ही विवक्षित है। यह बात सही है कि जिसप्रकार विवक्षित उपादान से विवक्षित उपादेय की ही प्राप्ति होती है, उसीप्रकार विवक्षित उपादान के कार्य का विवक्षित ही निमित्त रहता है । परीक्षामुग्व अ.3 मूत्र 63 में जो "कुलालस्येव कलशं प्रति" उदाहरण दिया है वह भी इसी बात को सूचित करता है। मात्र उपादान-उपादेय भावरूप कार्य-कारणभाव से निमित्त-नैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव में एक विशेषता है । वह यह कि उपादान अव्यवहित पूर्वसमय में होता है और उपादेय अव्यवहित उत्तर समय में होता है । जवकि निमित्त-नैमित्तिक भाव के सम्बन्ध में यह भेद नहीं है। उनमें से जिस समय निमित्त है उसी समय नैमित्तिक (उपादेयरूप कार्य) है। आगम में भी इन दोनों में समयभेद स्वीकार नहीं किया है। यथा . कारण-कार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयो ‘सुघटम् ॥ यहाँ निमित्त नैमित्तिकभाव के उदाहरण में सम्यक्त्व. और सभ्यज्ञान को लिया है। सम्यक्त्व को निमित्त रूप में स्वीकार किया है और सम्यग्ज्ञान को नैमित्तिक रूप में स्वीकार किया है । इसी बात का समर्थन समयसार गाथा.84 की,टीका से भी होता है । जिम समय कुम्भकार अपने कलश की उत्पत्ति के अनुकूल व्यापार करता है, उसी समय मिट्टी.स्वयं कलश रूप .परिणाम जानी है । कुम्भकार ने जो कलश की उत्पत्ति के अनुकूल व्यापार किया है वह स्वयं किया है, मिट्टी में नहीं किया है । मिट्टी से अलग रहकर ही अपने में किया है और मिट्टी ने भी कुम्भकार से अलग रहकर अपना कलशरूप व्यापार किया है। फिर भी बाह्य लोगों का अनादि से 'अज्ञानी का' व्यवहार चला आ रहा है कि कुम्भकार ने कलण बनाया । जिम समय क्रोध कयाय को उदय होता है. उसी समय क्रोध पर्याय होती है । इन उदाहरणों में भी इसी बात का समर्थन होता 'है कि जिप ममप में निमित है. उमी . ममय में उसका । नैमित्तिक होना है । उक्त श्लोक मे 'जो दीप और प्रकाश का उदाहरण लिया है वह भी निमित्त-नैमित्तिक भाव के अर्थ में ही लिया है, क्योंकि उपादान भी निमित्त ही है । अन्तर इतना ही है कि यहां जो, विवक्षित. परिणाम के सन्मुन्न होता है उसे उपादान कहा गया है : यदि परिणाम करता हा अर्थ उपादान का किया जाय तो उपादान कर्ता कहलायेगा और उसी समय में उपादेय कर्म कहलायेगा, किन्तु यह कथन भी. सद्भूत "व्यवहारनय से ही किया जा सकता है असद्भत व्यवहारनय से- नहीं । इसी बात को स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में कहा भी है :
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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