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यदि कोई ऐसा माने किं उत्पाद और व्यय में सर्वथा अभेद ही है सी उसका ऐसा मानना समीचीन नहीं हैं, क्योंकि उन दोनों को लक्षण की अपेक्षा देखा जाय तो वे दोनों कथचित भिन्न हैं । यथा कार्य और कारण का क्रम' से उत्पाद और विनाश कथंचित् भिन्न हैं,. क्योंकि वे कथंचित भिन्न लक्षणों से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे सुख और दुःख भिन्न-भिन्न लक्षणवाले होन से कथंचित भिन्न हैं, उसी प्रकार उत्पाद और व्यय भी कथंचिद भिन्न हैं। यह हेतु अनेकांत अथवा विरुद्ध दोष से दूषित नहीं है, क्योंकि क्वचित् एक द्रव्य में भी कचिदं भेदों के विना भिन्न लक्षण से संबंध रखने वाला होना असम्भव है । उन दोनों भेद को ग्रहण करने वाला प्रमाण पाया जाने से सर्वधा भेद नहीं है । यथा उत्पाद और विनाश कचित् अभिन्न हैं, क्योंकि उसमें अभेदरूप से स्थित पुरुष के समान जाति और संख्या पाई जाती है। पर्याय की अपेक्षा व्यय और उत्पाद भिन्न लक्षण वाले हैं, ध्रौव्यपने की अपेक्षा नहीं । पृथ्वी आदि सत् द्रव्यं जोतिरूप होने से, एकत्वसंख्यारूप होने से, शक्तिविशेष रूप होने से और अन्वयरूप होने से वे एक हैं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान से वैसा ही प्रतीत होता है। वहीं मिट्टी द्रव्य साधारण घंट के प्रकार से नष्टं हुई । और कपाल रूप से उत्पन्न हुई ऐसा प्रतीत होता है, इससे कोई वाधक प्रमाण नहीं पाया जाता । जो मैं सुखी था वही मैं दुःखी हूं यह एक पुरुष में जैसे प्रतीत होता है वैसे यहां भी समझना चाहिये ।
.. इस कथन से भी हम जानते हैं कि उपादान का लक्षण केवल नित्य द्रव्यमान नहीं है, क्योंकि जो पूर्व और उत्तर पर्याय में, साधारण होता है उसी को सामान्यरूप द्रव्यांत्मा कहते हैं। उस रूप से सभी वस्तुएं उत्पन्न नहीं होती और न विनाश को प्राप्त होती हैं, क्योंकि सामान्य स्वरूप का द्रव्य में स्पष्ट रूप से अन्वय देखा जाता है। इसलिये उपादान का लक्षण सामान्य नित्य द्रव्य न होकर पर्याययुक्त द्रव्य हो हो सकता है । व्याकरणचार्यजी ने खा. त. च. पृ 369 में जो यह लिखा है कि "पर्याय तो कार्य में ही अन्तर्भूत होती है, वह उपादान कभी नहीं होती," वह यथार्थ नहीं है, क्योंकि आगमप्रमाण से यह हम स्पष्ट कर आये हैं कि पर्याययुक्त द्रव्य ही उपादान होता है।
परीक्षामुख अध्याय तीन के सूत्र 16, 17 और 18 से भी यह तथ्य फलित होता है । सूत्र 16 में अविनाभाव को दो प्रकार का बतलाया है सहभावनियम और क्रमभावनियम । जो सहचारी होते हैं, जैसे रूप और रस तथा व्याप्य और व्यापक, जैसे वृक्ष और सीसोन, इनमें सहभाक नियम अविनाभाव होता है यह 17संख्यक सूत्र में बतलाया है साथ ही 18 संख्यक सूत्र में यह बतलाया है कि पूर्वचारी और उत्तरचारी होते हैं, तथा जो कार्य और कारण होते हैं, उनमें क्रमभावं नियम अविनाभाव होता है।
कार्यकारणभाव का उदाहरण देते हुए उसकी टीका में अग्नि और धूम्र को उद्धरणरूप में प्रस्तुत किया है । इससे हम जानते हैं कि यहां गीली लकड़ी को ग्रहण न कर अग्निविशेष को ग्रहण किया है, अग्निविशेष से ही.धूम्र को जन्म मिलता है, अग्निसामान्य से नहीं । इसी बात का समर्थन प्रमेयकमलमार्तण्ड के इन सूत्रों के ऊपर लिखित टीका से भी होता है।
यह क्रमभाव नियम अविनाभाव कार्यकारणभाव में तभी बन सकता है, जंव' उपादान को भी पर्याययुक्त द्रव्य स्वीकार कर लिया जाय और उपादेय को भी पर्याययुक्त 'द्रव्य स्वीकार