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आशय यह है कि उपादान में कार्यरूप परिणमने की योग्यता होने पर वह स्वयं कार्यरूप परिणमता है और बाह्य सामग्री उसमें उसीसमय निमित्त होती है, क्योंकि निमित्तपने को प्राप्त हुई बाह्य सामग्री श्रोर उपादानभूत द्रव्य के कार्य में नियम से बाह्य व्याप्ति होती है, इसी को कालप्रत्यासत्ति कहते हैं । यदि बाह्य सामग्री में कारणता नूतार्थं मानी जाय तो जैसे शुक्र अपनी सहज योग्यतावण वाह्य सामग्री के सद्भाव में पढ़ने लगता है, उसीप्रकार सहज योग्यता के अभाव में भी बाह्य सामग्री के बल से वक को भी पढ़ लेना चाहिये; किन्तु लास प्रयत्न करने पर भी बाह्य निमित्त के बल से बक नहीं पढ़ सकता और शुक पढ़ लेता है। इससे मालूम पड़ता है कि बाह्य सामग्री तो कार्य में निमित्त मात्र है, जो भी कार्य होता है, वह द्रव्य में पर्याययोग्यता के प्राप्त होने पर ही होता है । इसीकारा भट्टाकलंकदेव ने देव का लक्षण करते हुए अपनी श्रष्टशती टीका में लिखा है कि "पुराकृतं कर्म योग्यता च देवम्' अर्थात् पहले किया गया कर्म श्रीर योग्यता, इन दोनों को देव कहते हैं। देखो १४वें गुणस्थान में श्रामातावेदनीय का उदय तो है, पर तज्जन्य दुःख और उसका वेदन नहीं है, क्योंकि उस समय उस जीव में द्रव्य पर्याययोग्यता का प्रभाव हो गया है । इसलिये सिद्धान्त यह फलित होता है कि बाह्य सामग्री का सद्भाव या क्रियाशीलता कार्य की नियामक नहीं होती । उपादानगत द्रव्य पर्याय योग्यता ही कार्य की नियामक होती है, क्योंकि ऐसे उपादान के अनन्तर समय में नियम से कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है । इसलिये समीक्षक को यह निश्चय कर लेना चाहिये कि बाह्य पदार्थ में कार्य के काल मानी गई किसी प्रकार की भी निमित्तता उदासीन निमित्त के समान एक ही प्रकार की होती है। वह समीक्षक के मतानुसार प्रेरक श्रीर उदासीन के भेद से दो प्रकार की नहीं होती । विवक्षाभेद से उसे दो प्रकार का कहना या लिखना और बात है । होती है वह एक ही प्रकार की । यही इप्टोपदेश के वचन के अनुसार पंचास्तिकाय के उक्त वचन का ग्राशय है ।
आगे स पृ. १३६ में जो समीक्षक ने दोनों के कथनों में समानता दिखाने का प्रयत्न किया है; सो उपहास मात्र है, क्योंकि हम बाह्य निमित्त श्रागमानुकूल जो श्रयं करते हैं, उसे समीक्षक स्वीकार ही नहीं करता । इसीप्रकार हमने उपादान का जो ग्रागमानुसार अर्थ किया है कि प्रत्येक द्रव्य के उपादान की स्थिति में पहुँचने पर अनंतर समय में उसके अनुसार नियम से कार्य होता है, सो इसको भी समीक्षक स्वीकार नहीं करता । फिर दोनों के कथनों में समानता कैसी ? समीक्षक की एक आदत है कि वह मन्तव्य की पुष्टि में तो विधान तो करता है, पर इसके समर्थन में आगमप्रमाण नहीं उपस्थित कर पाता । उससे चारों दौरों में जो कुछ लिखा है, वह लागम को सामने रखकर नहीं लिखा है । श्रागम का काल्पनिक अर्थ करके उसे वह ग्रागमप्रमाण माने, यह दूसरी बात है । उसने जो कुछ भी लिखा है, वह अपने कल्पित मत का प्रचार करने के अभिप्राय से ही लिखा है। विशेष क्या लिखें ? कथन नं ४६ का समाधान :-लौकिक दृष्टि से संसारी प्रारणी जो मान्यता बनाता है, उस मान्यता को यदि आगम कहा जाय तो अज्ञान और सम्यग्ज्ञान में अन्तर ही क्या रहेगा ? मालूम पड़ता है कि समीक्षक श्रागम के स्थान में अपनी मान्यता को श्रागम बतलाकर आप जनता की दिशाभूल करना चाहता है । श्रागम तो उपादान की अपेक्षा श्रव्यहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य