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में उसके अनुसार ही कार्य होता है । आगम में वहाँ भी कार्यकारण भाव का सूक्ष्म विचार किया गया है । वहाँ जितने कार्य बुद्धिपूर्वक होते हैं, उन्हें प्रायोगिक कार्य कहा गया है और शेष सव कार्यों को विश्रसा कहा गया है । यद्यपि आगम में बाह्य कारण के विपय में उदासीन कारण और प्रेरक कारण ये नाम अवश्य दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु इनका उक्त दो कारणों में ही अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए हम पूर्व में तत्त्वचर्चा के प्रसंग में पागम के अनुसार जो अभिप्राय व्यक्त कर आये हैं, वही ठीक है, इसमें सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं है। हम समझते हैं कि समीक्षक अपनी मान्यता को
आगम पर लादने की अपेक्षा आगम के अनुसार अपने ज्ञान में संशोधन कर लेगा। . कथन नं. ४७ का समाधान :-जिसे अपर पक्ष प्रेरक कारण कहता है, वह अयथार्थ कारण है - ऐसा समीक्षक स्वयं स. पृ. ४ में लिख आया है। फिर भी वह उक्त कारण के वलपर कार्य को सुनिश्चित उपादान के अनुसार होना न मानकर कार्य का प्रागे-पीछे कभी भी होना बतलाने से विरत नहीं होता, इसका हमें ही क्या, सभी को आश्चर्य होगा।
समीक्षक इस कथन के अन्तर्गत लिखता है कि "यह बात दूसरी है कि वस्तु में उपादान शक्ति का अभाव रहने पर कोई भी निमित्त उस शक्ति को उत्पन्न नहीं कर सकता है ।" सो यहां यह देखना है कि समीक्षक उपादान से किसको ग्रहण करके यह अभिप्राय व्यक्त कर रहा है। यदि वह द्रव्यशक्ति को उपादान मानकर यह अभिप्राय व्यक्त करता है तो अकेली द्रव्यशक्ति तो उपादान हो ही नहीं सकती, क्योंकि बालू भी पुद्गल है और मिट्टी भी पुद्गल है । यदि घटकार्य की उत्पत्ति में मात्र पुद्गल होना चाहिए, भले हो वह किसी भी पयाय में क्यों न हो, तो वालू भी घट बन जाना चाहिए, क्योंकि वह भी पुद्गल है । यदि कहो कि बालू में घटकार्य को उत्पन्न करने की द्रव्यशक्ति नहीं पायी जाती, इसलिए वालू में घटकार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। तो अधिक विवाद में न पड़कर हम कहते हैं कि जो मिट्टी प्रायोगिक निमित्तरूप कुंभकार को निमित्तकर चाकपर रखी हुई है, उसमें पिण्ड की भूमिका में ही घट बन जाना चाहिए, क्योंकि उस समय उसमें द्रव्यशक्ति बरावर मौजूद है,। यदि कहो कि जब वह मिट्टी प्रायोगिक वाह्य कारण को निमित्तकर अव्यवहित पूर्वपर्यायरूप अवस्था को स्वयं बना लेती है, तभी वह घट पर्यायरूप परिणमति है, तो वहां हम कहेंगे कि उनमें भी वह अपने परिणाम स्वभाव के कारण ही परिणमती है, प्रायोगिक बाह्य निमित्त के कारण नहीं। ऐसा वस्तुस्वभाव है, इसलिए समीक्षक को सर्वप्रथम आगम के अनुसार उपादान का निर्णय ले लेना चाहिए । यदि वह निर्णय ले ले तो हमें विश्वास है कि उसके द्वारा ऐसा अागमविरुद्ध लिखना स्वयं वंद हो जायगा ।
लोक और पागम में जिसे अनुकूल निमित्त कहते हैं, वह कार्यकाल में नियम से होता है - ऐसी उनमें वाह्य व्याप्ति है । इसी अर्थ में स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में बाह्यतरोपाधिसमग्रतेयं" इस वचन का निर्देश किया है । अधिक क्या लिखें, और इसी अर्थ में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में यह सूत्रवचन उपलब्ध होता है -
1. त. वा. अ. ५ सू. २४ पृ. २३२-बंधोऽपि द्विधा लिसाप्रयोग भेदात् ।