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(३) इससे इन दोनों काल प्रत्यासत्ति का.समर्थन हाकर यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस ___ समय कार्य है, उस समय की अन्य वाह्य पदार्थ में अविनाभाव सम्बन्ध वश निमित्त
व्यवहार है।
इसप्रकार उक्त प्रमाण से दो द्रव्यों में कार्यकरण भाव की व्यवस्था कैसे बनती है - यह स्पष्ट हो जाता है । तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ. १५१ में भी इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है और इसी
आधार पर उसे दो में स्थित कार्यकारण भाव को परमार्थ भूत कहकर कल्पनारोपितपने का निषेध किया गया है।
अब हम बाह्य निमित्त को कल्पनारोपित किस आधार पर मानते हैं, इसे सप्रमाण स्पष्ट किया जाता है । पालाप पद्धति में नौ प्रकार के उपचार का कथन करते हुए लिखा है कि -
द्रव्ये द्रव्योपचारः, पर्यायः पर्यायोपचारः, गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये पर्यायोपचारः, गुरणो द्रव्योपचारः, गुरणे पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः, पर्याये गुरणोपचारः, इति नवविधोऽसद्भूतं व्यवहारस्यार्थो द्रष्टव्यः ।
एक द्रव्य में अन्य द्रव्य का आरोप करना यह द्रव्य में दव्योपचार है, द्रव्य में गुण का आरोप करना यह द्रव्य में गुणोपचार है; द्रव्य में पर्याय का आरोप करना यह द्रव्य में पर्यायोपचार है, गुण में द्रव्य का आरोप करना यह गुण में-द्रव्योपचार है, गुण में अन्य गुण का आरोप करना यह गुण में गुणोपचार है, पर्याय में द्रव्य का आरोप करना यह पर्याय में द्रव्योपचार है, पर्याय में गुरण का आरोप करना यह पर्याय में गुणोपचार है, पर्याय में अन्य पर्याय का आरोप करना यह पर्याय में पर्यायोपचार है । इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनय का यह नौ प्रकार का विषय है।
• अंब यहाँ पर कार्यकारण भाव को ध्यान में रखकर एक उदाहरण दे रहे हैं - अव्यवहित पूर्व-पर्याययुक्त मिट्टी घंट-का उपादान (सद्भूतः) निमित्त है, किन्तु इसके स्थान में जव यह कहा जाता है कि अमुक कुम्भकार को निमित्त कर मिट्टी घट वनी, तव यहां पर कुम्भकार मिट्टी का वास्तविक निमित्त-तो नहीं है, फिर भी कालप्रत्यासत्तिवश उसमें (कुम्भकार में.) उपादान (वास्तविक) निर्मित के स्थान पर घट की निमित्तता स्वीकार कर ली है। इस प्रकार कुम्भकार में निमित्तता आरोपित धर्म है। अतः उसमें निमित्तता असद्भूत होने पर भी कालप्रत्यासत्तिवश उसे निमित्तरूप में स्वीकार कर लिया गया है । इस प्रकार कल्पनारोपित का यहाँ पर यही अर्थ लिया गया है । समीक्षक यद्यपि -आकाश-कुसुम के समान कल्पनारोपित नहीं है यह अवश्य कहता है पर उससे यह पता नहीं, चलता कि प्रकृति में उससे क्या अभिप्रेत है? यदि वह आकाश-कुसुम के समान कल्पनारोपित का अर्थ सर्वथा अभाव लेता है, सो ऐसा तो हमारा कहना है,नहीं । हमारा कहना यह तो है कि कुम्भकार मिट्टी के कार्य में वास्तविक कारण नहीं है, आरोपित कारण है. इसलिये वह मात्र विकल्प का विषय है, क्योंकि. कालप्रत्यासत्तिवश.कुंभकार घटकार्य का. वास्तविक कारण तो नहीं है, क्योंकि वह घटरूप तो परिणमता नहीं है और उसने-मिट्टी के.घटरूप. कार्य के होने में सहायता भी नहीं की है, क्योंकि मिट्टी स्वयं ही उसकी अपेक्षा-किये, विना,घटरूप परिणमती है, इसलिये कुम्भकार के घट कार्य की निमित्तता विकल्प से ही है, परमार्थ से नहीं । यही जिनागम का सार है और यही हमारा कहना है ।